Book Title: Bhagwati Sutra Part 05
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 856
________________ ८२४ भगवतीसूत्रे विषसमिश्रं भुञ्जीत 'तस्स णं भोयणस्स आवाए भदए भवइ' तस्य खलु तादृशव्यञ्जनविशिष्टस्य विपसंमिश्रस्य भोजनस्य आपातः तस्य प्रथमतया संसर्ग: भद्रको मधुरत्वात् मनोज्ञः रमणीयो भवति आदावेच तस्य सुरसतालक्षणरमणीयता भवति नतु पर्यवसाने इत्याशयः, तदेवाह-'तओ पच्छा परिणममाणे परिणाममाणे दुरूवत्ताए, दुगंधत्ताए, जहा महासवए, जाव भुज्जो भुजो परिणमइ' ततः पश्चात् भोजनानन्तरं क्रमशः तद् भोजनम् परिणमत परिणमत् रूपान्तरं प्राप्नुवत् २ दुरूपतया दुर्गन्धतया दुरभिगन्धतया, यथा महानवे पष्ठशतकस्य तृतीये महास्रवोदेशके प्रतिपादितं तथाऽत्रापि यावतदूरसतया, दुर्वर्णतया, दुःस्पर्श तया दुःखतया नो सुखतया भूयो भूयः वारंवार भक्तदोष से वर्जित हुए तथा अठारह प्रकार के व्यसनों से-जो कि स्थानाङ्गसूत्र में तृतीयस्थान में कहे गये हैं उनमें मिश्रित हुए, भोजन को कि जिसमें 'विससंमिस्त' विष मिला हुआ हो, खावे तो 'तस्सणं भोयणस्स आवाए भद्दए' ऐसे अठारह प्रकार के व्यजनों से मिश्रित उस विषयुक्त भोजन का आपात-खाते समय का स्वाद रूप संमर्गमधुर होने के कारण रमणीय प्रतीत होता है. अर्थात् आदि में ही उस भोजन की सुरसतारूप रमणीयता प्रतीत होती है, पर्यवसान (अन्तमें) में नहीं, 'तओ पच्छा परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए दुगंधत्ताए जहा सहासबए जाव भुजोरपरिणमई' क्यों कि खाने के वाद् वह भोजन क्रमशः परिणमता हुआ-रूपान्तर को प्राप्त होता हुआ-दुर्गन्धरूप वाला बन जाता है. विकृत रूपवाला वन जाता हैं. जैसा कि छठे शतक के तृतीय महास्रव उद्देशक में कहा गया है, वैसा ही यहाँ परभी जानना चाहिये-यावत् उस का रस कुरस हो પકવવામાં આવેલ, કઈ પણ પ્રકારના દેવથી રહિત પકવાને તથા ૧૮ પ્રકારના શાકાદિ વ્ય જન (તે વ્યંજનના નામ સ્થાનાગસૂત્રના ત્રીજા સ્થાનમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવા)થી युत मान माय छे ते सानिमा या विष सेगवी वीटु छे. 'तस्मणं भोयणस्स आवाए भए भवई' व १८ प्रारना व्यापा, पशु विषना મિશ્રણવાળા આહારને આપાત (ખાતીવખતને સ્વાદરૂપ સંસર્ગ) તે અન્નની મધુરતાને કારણે ઘણે મીઠે અને રુચિકર લાગે છે, - એટલે કે શરુઆતમાં જ તે ભોજન સરસ भने स्वादिष्ट खाणे छ, ५ 'तओ पन्छा परिणममाणे परिणममाणे दुस्वत्ताए दुगंधत्ताए, जहा महासबए जाव सुज्जो भुज्जो परिणमई माधा पछी भरभ तनुं પરિણમન થતુ જાય છે–રૂપાંતર થતું જાય છે – તેમ તેમ તે ખરાબ અને દુર્ગધયુકત અથવા વિકૃતરૂપવાળું બનતું જાય છે છઠ્ઠા શતકના ત્રીજા મહાસન ઉદેશકમાં કહ્યા. પ્રમાણેનું કથન અહી ગ્રહણ કરવું. (યાવત) તેને રસ કુરસ થઈ જાય છે, તેને વર્ણ

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