Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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प्रस्तावना
विश्व के जितने भी धर्म और दर्शन प्रचलित हैं, उनमें जैनधर्म-दर्शन का चिरकाल से अति-प्रतिष्ठित और महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। लगभग सम्पूर्ण विश्व के प्रत्येक धर्मदर्शन पर और महापुरुषों के जीवन पर इसका उल्लेखनीय प्रभाव परिलक्षित होता है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी देखें तो बौद्धधर्म-दर्शन के प्रवर्तक महात्मा गौतम बुद्ध और ईसाई धर्म के प्रवर्तक महात्मा ईसा मसीह के जीवन पर भी जैनधर्म-दर्शन का व्यापक प्रभाव देखने को मिलता है। मूल बौद्ध-ग्रंथों के आधार पर यह प्रमाणित होता है कि महात्मा गौतम बुद्ध ने घर छोड़ने के बाद सर्वप्रथम तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परम्परा के निर्ग्रन्थ-श्रमण 'पिहितास्रव' से निर्ग्रन्थ जैन-श्रमण के रूप में दीक्षा अंगीकार की थी, और वे लगभग तीन वर्षों तक इस रूप में साधना करते रहे। बाद में जब जैन-श्रमण की कठिन साधना उनसे नहीं निभ सकी, तो उन्होंने जैन-साधना-पद्धति में वर्णित गृहस्थ और साधु के मध्य का मार्ग अपनाया। इसीलिये उन्हें मध्यमार्गी भी कहा जाता है। जैन-परम्परा में इस मध्यमार्गी स्थिति को 'क्षुल्लक' कहा जाता है। यद्यपि बाद में महात्मा बुद्ध ने अपना स्वतंत्र धर्म-दर्शन प्रचारित किया, फिर भी उनकी वेशभूषा क्षुल्लक जैसी ही बनी रही, और जैनधर्म के अहिंसा आदि सिद्धांतों का उन पर गहन प्रभाव परिलक्षित होता है।
इसीप्रकार महात्मा ईसा मसीह के बारे में कुछ ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं कि निर्ग्रन्थ-जैन-श्रमणों से जैनधर्म-दर्शन के महत्त्वपूर्ण विचारों तथा साधना-पद्धति के बारे में जानने वे भारत आये थे, और वर्तमान के बंगलादेश में और तत्कालीन भारत में स्थित एक स्थान पर वे गये और वहाँ जाकर उन्होंने निर्ग्रन्थ- जैन-श्रमणों से बहुत-सी जिज्ञासायें शांत की। वे मूलतः कर्म और पुनर्जन्म सिद्धांत को नहीं मानते थे, किन्तु बाद में उन्होंने इन दोनों सिद्धांतों को निर्ग्रन्थ-जैन-श्रमणों के सम्पर्क में आकर ही स्वीकार किया। अनेकों विद्वान् इस तथ्य की अनेकत्र पुष्टि कर चुके हैं।
इसी क्रम में हम यदि अन्य भारतीय-दर्शनों को देखते हैं, तो इनमें तो अहिंसा का मूल-प्रसार दृष्टिगोचर होता है, तथा त्याग की उदात्त भावना परिलक्षित होती है; तो वह पूर्णतः जैनधर्म-दर्शन से बहुत सीमा तक अनुप्राणित है। क्योंकि जैनधर्मदर्शन प्रारम्भ से ही अहिंसा-मूलक और निवृत्ति-मार्गी रहे हैं।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने तो अपनी ऐतिहासिक पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इण्डिया' में स्पष्टरूप से लिखा है कि 'जैन भारतवर्ष के मूल-निवासी थे।' इससे स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म-दर्शन भारतवर्ष में चिरकाल से प्रचलित और प्रतिष्ठित है। हिन्दू-परम्परा के वैदिक-ग्रंथों और पुराण-ग्रंथों में जैनों के प्रायः सभी तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है, तथा उन्हें और उनकी परम्परा के श्रमणों-श्रावकों को 'व्रात्य' संज्ञा से अभिहित किया गया है। बौद्ध-ग्रंथों में भी जैनों के
भगवान महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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