________________ बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य | 63 जैन धर्मनिष्ठ ई.पू. तीसरी सदी के अंत तक मूर्तिपूजक बन गए जिसकी साक्ष्य कंकाली-टिला (मथुरा) के उत्खनन में मिलती है। चतुर्विध संघ चतुर्विध संघ के प्रति चालुक्यों का रुख ठंडा या तटस्थ नहीं था। बल्कि वे अतिग्रहणशील थे तथा अनेकान्त के प्रचार में गहरे जुड़े थे। विभिन्न धर्म, मत, संप्रदाय या मुनियों के नाम, आश्रम तथा मठों के समर्थन की प्रकृति के बारे में शिलालेख रोचक जानकारी देते हैं। जैनों के प्रार्थना स्थान के उपयोग में लायी गयी जमीन का लगान तथा देय की रोधक्षमता का उल्लेख तत्कालीन शिलालेखों में किया गया है, जो इस बात का ठोस प्रमाण है कि अहिंसा के सिद्धान्त को उनका सक्रिय सहयोग था। चालुक्यों के युगीन संदर्भ में जैन वास्तुकला की उत्पत्ति तथा स्वरूप का लेखा वैविध्यपूर्ण वैभव का समग्र प्रतिबिंब प्रस्तुत करता है। स्थानीय / शैली तथा माध्यम की चर्चा बाद के दो अध्यायों में की जाएगी। ___ वास्तव में जैन धर्म का प्रतिस्पर्धी बौद्ध धर्म को मिलने वाली सहायता की अपेक्षा कई अधिक मात्रा में लंबे समय तक जैनों को जो सहायता प्रचुर मात्रा में मिली इसका परिचय हमें साम्राज्य के अन्य क्षेत्रों में उसके स्थान से ही मिलता है। सत्ताधीश घरानों का सहयोग अत्यंत महत्वपूर्ण था किंतु यही संप्रदाय के लंबे समय तक जीवित रहने के लिए काफी नहीं है। जैन तपस्वियों के समुदाय का संप्रदायों तथा उपसंप्रदायों में विखंडन की पहल आचार्य अर्हदबलि (पहली तथा दूसरी सदी) से की गई थी जिसने महावीर से उत्पन्न मूलसंघ को व्यवस्थित रूप से चार तपस्वियों के दलों जैसे सेन, देव, सिंह तथा नंदि संघ में विभाजित कर दिया था। ये मुख्यतया दक्षिण दिगंबर संप्रदाय थे। निर्गंठ संप्रदाय में प्रत्येक तपस्वी अपने दल को घोषित करने के लिए अक्सर अपने नाम के आगे अपने दल के उपभाग का नाम लगा देते थे ,जैसे जिनसेन, समन्तभद्र देव, वादिभसिंह तथा माघनंदी। जिससे इनके सामुदायिक या सांप्रदायिक उपभाग की सूचना मिलती है। लेकिन संप्रदाय-उपसंप्रदाय के नाम को अपने वैयक्तिक नाम के साथ जोडना अनिवार्य नहीं था। हालाँकि इस पुस्तक के लेखक चालुक्यों के शिलालेख में उल्लेखित देवगण को बराबरी का दर्जा देने के लिए ललक उठता है। वह यह कहता है कि देसिगण संभवतः देवगण का अग्रदूत था। आश्चर्य की बात यह है कि देसिगण यह शब्द Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org