________________ 108 | बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य संभवतः कर्नाटक के सबसे प्राचीन पूर्ण विकसित निशिधि शिल्प जो सातवीं सदी का है, वह ऐहोळे का है। तराशी हुई निशिधि की पटिया, जो मेगुडी, जिनेन्द्र भवन, के कंपाउंड के दीवार पर लगाई गई है, वह अपने तरह का पहला फलक है। हलके सुनहरे रेतिले पत्थर पर तराशे तथा अत्यंत सुंदरता से दर्शाये शिल्प के ऊपरी हिस्से के बीचों बीच अर्ध पद्मासन की मुद्रा में बैठे महावीर को दिखाया गया है। निचले भाग के तीन सिंहमुख जैसे सिंहासन के रूप में पीठ को सूचित करते हैं। जिन को चामर झुलाते एक आचार्य को बायीं ओर दिखाया गया है, जिसके हाथ में मोरपंख तथा कमंडल लिए दाहिने ओर के व्यक्ति की ओर उन्मुख है। जिन के सेवकों को जो मोरपंख लेकर दर्शाया गया है, यह पूर्व-कुशान शिल्प की ही साक्ष्य है। जैनमुनि तथा साध्वियों (माताजि) के मार्ग के छोटे छोटे जीव जंतुओं को झाडते, साफ करते दिखाया गया है, ताकि जब ये जैनमुनि पैदल चलने लगे तो उनके पैरों तले वे रौंद . न जाए या आहत न हो।, जैनप्रत्याशि हाथ जोडकर पर्यंकासन में प्रार्थना की मुद्रा में बैठे है। सल्लेखन का व्रत लेने वाला व्यक्ति मस्तक के ऊपर उष्णिश की गाँठ के साथ, कान में कुंडल, हाथों में कंगन तथा पैरों में पायल धारण किए हुए हैं। जिससे वह व्यक्ति अभिजात वर्ग का लगता है। हालाँकि इतने सजे-धजे व्यक्ति की पहचान नहीं होती। फिर भी उसके रविकिर्ती होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। यह दुर्भाग्य की बात है कि चार पंक्तियों वाला वह पुरालेख जो कि एक शिल्प के नीचे लिखा गया है, उसे इस तरह से मिटा दिया गया है कि उसे पढा ही नहीं जा सकता। ___ उपर्युक्त निशिधि स्मारक के सादृश्य साधारण शब्दों में कहा जाय तो यह बादामी का संग्रहालय ही है। और एक पंक्तिवाली पाषाण प िका उपर्युक्त वर्णन में थोडे से अंतर के साथ मेल खाती है। किंतु यह तख्ती किसी भी पुरालेख से रहित है। जबकि शिल्पाकृति के नीचे का अत्यंत सुंदर आयताकार भाग स्मारक के विवरण सहित होना चाहिए था। इस युग के अनेक निशिधि शिल्प बेळ्ळारी जिले के येरबळ्ळि तथा अरबळ्ळि पहाडी में पाए गए। हालाँकि तराशा हुआ बहुत सारा विवरण अस्पष्ट है। फिर भी विद्यमान भाग उल्लेखनीय है। बेल्लारी जिले के अराबली पहाडी के पश्चिम भाग की च ान पर जो निशिधि पुरालेख पाया गया है, उसने इस युग में जैनों के स्थान का अध्ययन करने में एक नई दिशा दी। 1400 साल प्रकृति में खुला रहने तथा प्राकृतिक आपदाओं की मार सहने के कारण ऐतिहासिक महत्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org