________________ बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य | 107 पदचिह्न माने जाने के कारण भक्त गणों का यह विश्वास है कि इन पदचिह्नों की पूजा-अर्चना तथा उसके गुण गान से ही मोक्ष की प्राप्ति होगी। पहाडों के राजा सम्मेदगिरी (झारखंड), कळ्वप्पु तथा अन्य जगहों पर जैन धर्मगुरु आज तक इन चरणों की पूजा करते आ रहे हैं। हालाँकि इस युग के पुरालेख बड़ी संख्या में पाए गए हैं, किंतु इन पवित्र चरणों के शिल्प अब तक क्रमसंख्या में प्रकाश में आए हैं। पारसनाथ पहाड को, सम्मेदगिरी भी कहा जाता था, जो कि एक सिद्ध क्षेत्र है जिसका उपनाम है निर्वाणभूमि, जहाँ पार्श्व समेत बीस तीर्थंकरों ने जन्म मृत्यु के चक्र से मोक्ष प्राप्त किया था। जिसे निशिहिया (सं.निशिधिका) कहा गया है। इसी प्रकार से, बिहार के पास के चम्पपुरा शहर के पास का मंदिर बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य को समर्पित किया गया है। जिसको ‘संघदासगणि वाचक' के वसुदेव हिंदी में निशितायतण कहा गया है। (सी.पांचवीं सदी) सम्मेदगिरी चंपापुरी तथा पावापुरी ये पावन स्थल हैं और जैन लोग निशिधि की तीर्थ यात्रा तथा वहाँ जाकर प्रार्थना करने के लिए बहुत महत्व देते है। विद्यमान निशिधि इस युग के जैनों का स्मारक पाषाण, विद्वानों का ध्यान खींचता है। व्यावहारिक दृष्टि से इस युग के, किसुवोळाल तथा पुलिगेरे के निशिधि नहीं ही है, जबकि ऐहोळे तथा बादामी के दो हैं। किंतु श्रवणबेळगोळ में दो दर्जन निशिधि पाए गए हैं। कई स्मरणिय पुरालेख सातवीं तथा आठवीं सदी में चंद्रगिरी के पर्वत पर लिखे गए हैं। दिलचस्प बात यह है कि पुरालेख का संबंध किसी भी राजा या राज्य से नहीं है और ना ही उस में किसी राजा के शासनकाल का ही उल्लेख है। दूसरी ओर वे मुनि तथा साध्वियों के संघ के बारे में कहते हैं, उदाहरणस्वरूप, सातवीं सदी के कुछ निशिधि उन स्वाध्वियों के बारे में यह कहता हैं कि वे चालुक्यों के काल के नविलूरू संघ की शिष्याएं थीं। रोचक बात यह है कि सातवीं सदी की अरबळ्ळि के निशिधि में पुलकेशि के नाम का उल्लेख है। सल्लेखन आत्मघात नहीं है। जैन परंपरा में लंबे उपवास करके मृत्यु का स्वागत करना है। चंद्रगिरी तथा कुछ अन्य जगह के सातवीं सदी के लगभग तीस निशिधि पुरालेख पैरों की शिल्पाकृतियाँ दर्शाते हैं, जो मुनि तथा साध्वियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्होंने शांति तथा धीरज से अन्न जल का त्याग कर मृत्यु का अवलंब किया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org