Book Title: Bahubali tatha Badami Chalukya
Author(s): Nagarajaiah Hampa, Pratibha Mudaliyar
Publisher: Rashtriya Prakrit Adhyayan tatha Anusandhan Sanstha

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Page 167
________________ बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य | 123 वाली ऊंची प्रतिमा ऐहोळे जैन बसदि के सामने स्थित विरुपाक्ष देवालय ( गौरीगुडी) के सुखनासी में प्रस्थापित है, उसे गौरी (पार्वती) की प्रतिमा के नाम से जाना जाता है। जाहिर है कि यक्षी ज्वालमालिनी की जैन प्रतिमा संभवतः मध्यकालीन जिनालय से निकाली गयी और गौरीगुडी में उसे प्रस्थापित किया गया। ज्वालामालिनी देवी उपनाम अग्निवाहिनी देवी, आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभ की शासनदेवी को प्रायः उसकी छाती से उठती हुई ज्वाला में दिखाया गया है। यक्ष भद्रासन पर एक छत्री के नीचे तथा चाप के आकारवाली प्रतिमा के नीचे बैठा हैं। वह अर्धपर्यंकासन में बैठा है। उसने यज्ञोपवित, रत्नहार, कंठी, पायल, कुंडल, स्कंध कवच तथा कंगन पहने हुए हैं। उसके कुंडल. कंठी, स्कंध-कवच आदि तथा बाजूबंद की नक्काशी तथा कलाकारी यक्षी के अलंकारों से मिलती है। किंतु यक्ष के गले का यज्ञोपवित अधिक सजा-धजा है जबकि कंकन तथ पायल यक्षी की तुलना में साधारण से है। यक्ष का शंखाकार किरीट जिन के पुतले की अपेक्षा यक्षी का ही स्मरण दिलाता है जो कि सामने से एक बड़े तमगे के समान लगती है। दोनों प्रतिमाओं की कलाकारी में कुछ भिन्नताएँ हैं। अत्यंत शालीनता से बैठी युवती की देह तथा आलथी पालथी मारकर बैठे पुरूष की सुदृढ देह में एक प्राकृतिक भिन्नता है। यक्ष के पीठ से होकर उसके दाहिने पैर तक योगपट्ट है। और हंस उसके तीन स्तरों वाला भद्रासन वहन करता है। उसके चार हाथ है . और यक्षी की तुलना में अलग अलग स्थानों पर है। उसके ऊपरवाले दाहिने हाथ में परशु और बायें हाथ में कश है और शेष दो हाथों में से दाहिने हाथ में पद्म और बाया हाथ अभय मुद्रा में या फिर उसमें फल है। जो कि अब भग्न है। उसके सिर के पीछे प्रभामंडल है। उसकी अधमूदीं आँखें, तराशे हुए अधर, तथा गालों के पास की रेखाएं ज्वालामालीनि यक्षी जैसी ही है। ज्वालामालिनी के ही समान ही श्याम यक्ष सातवीं सदी की स्वतंत्र प्रतिमा इस देश के प्राचीन किंतु विद्यमान शिल्प है। यह यक्ष हमें विरुपाक्ष मंदिर के यक्षी की याद दिलाता है। इन दोनों प्रतिमाओं में छत्र पद्मासन, प्रभामंडल की समानताएँ प्राप्त होती है। इसके अलंकार भी बादामी की चार नंबर की गुफा में पाये जाने वाले छोटे यक्षों की याद दिलाते है। योगपट्ट तथा अन्य आलंकारिक विवरण यह उद्घाटित करते हैं कि ये शिल्प किसी एक ही शाखा के शिल्पकारों से बनाए गए हैं, संभवतः एक ही काल के हैं। पहली समानता हमें प्रतिमा की पहचान में सहायता देती है, तो दूसरी तिथि को समझने में मदद करती हैं। (शेट्टर 1996) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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