________________ 138 | बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य शैलीगत समानता लिए हुए हैं। हालाँकि सूक्ष्म निरीक्षण के बाद कलात्मक प्रदर्शन में छोटी भिन्नताएँ नज़र आती हैं। 2. ऐहोळे में स्थित बाहुबलि की शिल्पाकृति 1.78 मी. लंबी है तो बादामी की शिल्पाकृति 2.30 मी. लंबी है। सौंदर्य की दृष्टि से अगर कहना हो तो बादामी के गुफा में स्थित शिल्पाकृति निश्चित ही अधिक सुंदर है तथा लंबी भी है। 3. जिन पार्श्व का शिल्प तराशनेवाले प्रथम कलाकार वातापी का है। 4. जाहिर है कि जिन की शिल्पाकृतियाँ, प्रतिमाएं तथा शिल्प पृथक तथा अचल हैं। किंतु पार्श्व, बाहुबलि, शासनदेवता, इंद्र तथा उनके परिवार इसके अपवाद 5. पार्श्व की दृढता तथा बाहुबलि की स्थिरता एकदम विशुद्ध है। शांत रस को चारूता से दर्शाया गया है। 6. जैन गुफाओं में बाहुबलि की शिल्पाकृति बहुत प्राचीन है। हालाँकि आश्रमों तथा मंदिरों एवं पर्वत के ऊँचे शिखर पर की बाहुबलि कई विद्यमान प्रतिमाएँ परवर्ती हैं। चालुक्य शिल्प का ऐतिहासिक, प्रतिमागत तथा सौंदर्य से परिपूर्ण ___ लावण्य अभी नष्ट नहीं हुआ है। बादामी की जैन गुफाओं में स्थित महावीर के एक विशाल उभडे शिल्प में महावीर की शासन देवता चार हाथों वाली सिद्धायिका पर भी ध्यान देना जरूरी है। जिसके ऊपरवाले दाहिने हाथ में अंकुश है जिसका हत्था थोडा सा टूटा सा है, और बायें हाथ में पाश है। नीचे के दाहिने हाथ को अभय मुद्रा में दर्शाया गया है तो बायें हाथ में मातुलुंग (सीताफल जैसा) फल है। यह भी उल्लेखनीय है कि देवता का वाहन जो कि आसन के नीचे तराशा गया है स्पष्ट नहीं है। हालाँकि इसको पहचानना कठिन है फिर भी एच. डी. संकालिया का मानना है कि यह वाहन हंस का है। किंतु जैन परंपरा तथा शिल्प कला के अनुसार सिद्धायिका देवता सिंहासनवासिनी है। (नागराज्जय्य हंप-यक्ष-यक्षीयाँ-1976-142) इस शिल्प की महत्वपूर्ण विशेषताएँ दो हैं, एक उसके हाथ में पुस्तक का ना होना तथा उसको दो हाथों की बदले चार हाथोंवाली दिखाना, यह भिन्नता लगभग सातवीं सदी के प्रारंभ हुई है। - यू.पी शाह ने बहुत ही सही निरीक्षण किया है, उनके अनुसार, यह ठाँचा उपलब्ध दिगंबर पाय में अज्ञात है, किंतु गुफा के संभावित युग को देखने पर यह ज्ञात होता है कि कर्नाटक में यह एक नयी खोयी जैन परंपरा का प्रतिनिधित्व करती है। इस गुफा की यह तथा अन्य शिल्पाकृतियाँ जैन गुफाओं से कुछ परवर्ती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org