Book Title: Bahubali tatha Badami Chalukya
Author(s): Nagarajaiah Hampa, Pratibha Mudaliyar
Publisher: Rashtriya Prakrit Adhyayan tatha Anusandhan Sanstha

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Page 172
________________ 128 | बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य है तो बाया हाथ वरदहस्त है। सिंह, उसका वाहन, उसके चरणों में है, और उसके पुत्र उसकी बायीं तरफ दिखायी पडते हैं। (नागराजय्य हंप.: 2000:243) यह उल्लेखनीय है कि यही एक मात्र पाषाण है जहाँ अंबिका तथा पद्मावती एक दुसरे के पीछे दिखायी देती हैं। अर्थात् पाषाण के एक तरफ पद्मावती तो दूसरी तरफ अंबिका है। विद्यमान जैन शिल्पों में ऋषभ तीर्थंकर का शिल्प, जो अर्ध पद्मासन में ध्यान में लीन है और ललितासन में बैठी पद्मावती का शिल्प, उल्लेखनीय है, जो हाल ही में गुंडनापुर के उत्खनन में पाये गए। आदिनाथ (ऋषभ) जिन की प्रतिमा सामान्य शब्दों में चालुक्य युग की स्वतंत्र प्रतिमाओं में पहली स्वतंत्र शिल्प प्रतिमा है, जिसे मंगळेश्वर ने बनवाया था। अधिकतर कलात्मक प्रदर्शन में इस प्रतिमा की कोई बराबरी नहीं कर सकता। कंधो तक फैले धुंघराले केश, दीर्घ कान, ध्यानमग्न आँखें, नाभी, लंबी तीक्ष्ण नाक, अधरों पर स्थिर स्मित, विशाल छाती, गोल चेहरा, दृढ तथा महापुरूषों के लक्षणों से युक्त स्थिर शरीर यह प्रतिमा एकदम उत्कृष्ट बनी है। आदिनाथ की यह प्रतिमा, जिसमें आध्यात्मिक गंध भरी है, मूलनायक के रूप में मंदिर में प्रतिष्ठापित की गई है। आदिनाथ तीर्थंकर की ध्यानमग्न सिर, शरीर के साथ सानुपातिक तथा सामंजस्यपूर्ण है। कुल वजन का सही रूप में सामंजस्य। यह चालुक्य शिल्पकला का सुंदर उदाहरण है। यह प्रतिमा बहुत ही कुशलता से बनाई गई है। इस प्रकार इस अत्यत सुंदर शिल्प की ऐतिहासिक विशेषता को किसी अतिशयोक्ति की आवश्यकता नहीं है। - पद्मावती की भग्न प्रतिमा के बारे में अगर कहना हो तो उसकी प्राचीनता के बारे में विश्वसनीय जानकारी का अभाव है। पद्मावती का शिल्प तत्कालीन शासनदेवता के शिल्पों से कई बातों में साम्य रखता है। ललितासन में बैठी, तथा धनुष्याकार परिकरों के फ्रेम में ज़डी हुई पद्मावती की प्रतिमा रत्नजटित कंठहार, कुंडल, स्कंधाभूषण तथा मुकुट आदि से सुशोभित है। उसके पीछे जो एक प्रभामंडल है उसकी किनारों में रत्न जड़े हैं, यह एक दुर्लभ लक्षण है। एक मुड़ा हुआ रस्सी जैसा मोटा धागा जो कि उसके वक्षों के बीच से होकर उसकी जंघाओं तक जाता है, वह एक प्रकार का आभूषण ही होगा। इस देवता ने अपने दाहिने हाथ में अंकुश धारण किया है। स्तम्भाधार, प्रभावलय आदि नष्टप्राय है तो मुख तथा अन्य चीजें विरूपित हो गई हैं। ललितासन में बैठी देवता का बायां पैर स्तम्भाधार पर नीचे की ओर है। इस काल के तीन यक्षीयों में यह एक दुर्लभ बात है। शैलीगत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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