Book Title: Arhat Vachan 2000 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 13
________________ और पौराणिक स्वरों और उस समय की समकालीन संस्कृतियों के विकास पर उनकी गहरी छाप के रहते, मेरा हड़प्पा की मोहरों पर उत्कीर्ण अभिलेखों का अध्ययन आगे बढ़ता रहा । मगर हड़प्पा की लिपि विश्व के लिपिशास्त्रियों के लिये एक अभेद्य दीवार बनी हुई है। इतना ही नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर विद्वानों के बीच एक प्रकार का दुराग्रह विकसित होता रहा है। सम्भवत: इसके पीछे कुछ राजनैतिक कारण भी रहे हैं। सामान्यतः विदेशी पाश्चात्य विद्वान् जहाँ एक ओर इस लिपि में व्यक्त भाषा को द्रविड़ सिद्ध करने पर तुले हुए हैं और उन्हीं के इस प्रवाह के रहते तुछ तमिल भाषी विद्वान् हड़प्पा लिपि के चिन्हों को मात्र प्रतीक चिन्ह (इडियोग्राफ्स ) समझकर मोहरों पर तमिल भाषा उकेरी गई होने का आग्रह करते हैं। इसके विपरीत भारतीय विद्वान्, जाने अनजाने और सम्भवतः भारतीय उपमहाद्वीप की भौगोलिक स्थिति और उसके सांस्कृतिक इतिहास को दृष्टि में रखते हुए, हड़प्पा की लिखावट में संस्कृत मूलक भाषा पर जोर दे रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में किसी भी अध्येता के लिये अपने विचारों को प्रभावी रूप से प्रस्तुत करने में कठिनाई होती है और अगर वह अपनी बात कहे भी तो विद्वत् समाज सहमति देने में कठिनाई का अनुभव करता है। इस विषय की सबसे बड़ी बाधा ऐसे बाहरी प्रमाण के नितांत अभाव की है जो लिपि के वाचन के किसी प्रयास के लिये निर्णायक हो सके। कई प्राचीन लिपियों के वाचन - प्रयासों के समय द्विभाषिक अभिलेख बड़े सहायक सिद्ध हुए थे; मगर हड़प्पा लिपि के सन्दर्भ में ऐसा कोई द्विभाषिक अभिलेख प्राप्त नहीं हुआ है। मोहरों पर उकेरे गये चित्रों का महत्व : इन विसंगतियों और कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए, यहाँ वाचन प्रयास करते हुए अभिलेखों में उपलब्ध आंतरिक प्रमाणों पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। और सौभाग्य से हड़प्पा लिपि में ऐसे आंतरिक वाचन - प्रमाणों की कमी नहीं है। इनमें सबसे उल्लेखनीय, मोहरों पर उकेरे गये विभिन्न चित्र हैं जो हड़प्पा के चिन्हों के साथ बड़ी कुशलता के साथ उकेरे गये हैं। इन्हें इरावती महादेवन ने 'फिल्ड सिम्बल' नाम दिया है। 8 महादेवन ने ऐसे लगभग एक सौ अलग अलग चित्रों (फिल्ड सिम्बल) की पहचान की है। अनेक बार मोहरों का लेखक इन चित्रों से लेख की चित्रात्मक अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता प्रतीत होता है। इसी कारण चित्रों की उपस्थिति, वाचन प्रयास के दौरान अत्यन्त सहायक सिद्ध होती है और वाचन प्रयास को प्रामाणिकता भी प्रदान करती हुई दिखती है। इन्हीं चित्रों के कुछ उदाहरणों में यदि जैन पौराणिक कथाएँ दर्शाई गई प्रतीत होती हैं, तो कुछ चित्र ऐसे भी हैं जिनमें जैन मुनियों के समान मानवाकृतियाँ, सौम्य भाव लिये कायोत्सर्ग मुद्रा में उत्कीर्णित हैं।' हड़प्पा की लिपि में उकेरे गये जैन आचरण और पुराणों के सन्दर्भ : जैसा कि पहले कहा गया, प्रारम्भ से हड़प्पा की मोहरों पर जैन विषय वस्तु का अहसास होने लगा था। इस सन्दर्भ में संभवत: सबसे पहला शोध पत्र पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी के तत्त्वावधान में सारनाथ में आयोजित गोष्ठी में जनवरी 1988 में प्रस्तुत किया गया था। उस समय उस तुतलाती भाषा को विद्वानों के सम्मुख रखना एक कठिन कार्य था। इसी विषय को पुनः 'जैन सब्जेक्ट मैटर इन द हड़प्पन स्क्रिप्ट' शीर्षक से ऋषभदेव प्रतिष्ठान द्वारा आयोजित संगोष्ठी में राष्ट्रीय संग्रहालय, देहली में दिनांक 30 अप्रैल, 1 मई 1988 को प्रस्तुत किया गया। अब स्थिति कुछ बेहतर होने लगी थी और कुछ चुने हुए उदाहरण लेते हुए शोध पत्र में हड़प्पा में उकेरे गये जैन सन्दर्भों अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000 11

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