Book Title: Arhat Vachan 2000 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 75
________________ आत्मा को लाभ - हानि से परे माने। श्रेष्ठ धर्मध्यान वाली अवस्था तो वह है जहां 'पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजां' (जहां प्राणियों के पाप क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं - वैसे ही जैसे कि सूर्य से अंधेरा क्षण भर में नष्ट होता है)। आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा वर्णित 'विकल्पजाल से रहित साक्षात् अमृत पीने वाली अवस्था' स्वरूप में गुप्त होने से प्राप्त होती है - यही ध्यान की परम अवस्था है। ज्ञानी की इस अवस्था को बहुत ही सुन्दर एवं कम शब्दों में आचार्य अमृतचन्द्र यों भी कहते हैं कि यह विश्व के ऊपर तैरने वाली , अवस्था है जिसमें न तो कर्म किया जा रहा है और न ही प्रमाद होता है - विश्वस्योपरि ते तरंति सततं ज्ञानं भवंत: स्वयं ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यांति प्रमादस्य च।" परिशिष्ट : जैनागम में वर्णित ध्यान के भेद - प्रभेद ध्यान (1) आर्त्त ध्यान (2) रौद्र ध्यान (3) धर्म ध्यान (4) शुक्ल ध्यान (1.1) इष्टवियोगज (1.2) अनिष्ट संयोगज (1.3) रोग पीड़ा चिंतवन (1.4) निदान (2.1) हिंसानन्दी (2.2) मृषानन्दी (2.3) चौर्यानन्दी (2.4) संरक्षणानन्दी (3.1) आज्ञा (3.2) अपाय (3.3) विपाक (3.4) संस्थान (4.1) पृथकत्व वितर्क (4.2) एकत्व वितर्क (4.3) सूक्ष्म क्रिया प्रतिपति (4.4) व्युपरत क्रिया निवर्ति (3.4.1) पिण्डस्थ (3.4.2) पदस्थ (3.4.3) रूपस्थ (3.4.4) रूपातीत । (3.4.1.क) पार्थिवी धारणा (3.4.1.ख) आग्नेयी धारणा (3.4.1.ग) श्वसना धारणा (3.4.1.घ) वारुणी धारणा (3.4.1.ङ) तत्त्वरूपवती धारणा . अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000

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