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छत्रत्रय और छत्रत्रय के ऊपर अशोक वृक्ष के मनोरम ऊपरी पत्रगच्छ शिल्पांकित हैं. चिन्ह का अंकन नहीं है। दोनों प्रतिमाओं के तथा उनके परिकर अंकन में समानताएँ हैं। दोनों चॅवरधारी दाहिने दाहिने हाथ में चॅवर लिये हुए हैं। सूक्ष्मता से देखने पर दो भिन्नताएँ दृष्टिगत होती हैं - (1) बायें से प्रथम प्रतिमा के केश विन्यास हैं, जिनकी लटें स्कन्धों पर लटक रहीं उकरित हैं। (2) दायीं प्रतिमा पर दर्शाये गये गगनचारी देव हाथ जोड़े हैं जबकि वाईं ओर के गगनचारी देव हाथों में माला लिये हुए हैं (चित्र संख्या 5)। ध्यान मुद्रा में सर्पकुण्डल्यासनस्थ प्रतिमा
दोनों कायोत्सर्ग प्रतिमाओं के बाद तीसरी (पाँचों में मध्य की) ध्यानस्थ जिन प्रतिमा जैन प्रतिमा - विज्ञान में चिन्ह एवं पादपीठ अंकन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसके वक्षस्थल से ऊपरी भाग का शिलाखण्ड भग्न हो जाने के कारण प्रतिमा का ऊर्ध्व भाग
और उसका ऊपरी परिकर नष्ट हो गया है। ऊपर केवल प्रतिमा के दाहिनी ओर का गगनचर माल्यधारी दिखाई देता है। पादपीठ में मध्य में अण्डाकार धर्मचक्र है, इसके 22 आरा हैं। चक्र के दोनों ओर दो विरुद्धाभिमुख गज (हाथी) अंकित हैं, हाथियों के बाद समानान्तर (पादपीठ में ही) एक - एक ध्यानस्थ जिन अंकित हैं। तीर्थंकर प्रतिमा सर्पकुण्डली पर ध्यान मुद्रा में बैठी हुई दर्शाई गई है, तथा इसी सर्पकुण्डली का पृष्ठासन उकरित है। और निश्चित रूप से फणाटोप था जो शिला का ऊपरी भाग भंग हो जाने से नष्ट हो गया है, फिर भी फण का कुछ भाग अभी परिलक्षित होता है। इस तीर्थंकर प्रतिमा के अन्य परिकर में बाईं ओर का चँवरधारी तथा दाहिनी ओर का गगनचारी माल्यधारी देव भग्न शिला में खण्डित दृष्टिगोचर होता है (चित्र संख्या 6)। दो विशेषताएँ - ऊपर उल्लेखित प्रतिमा (चित्र संख्या 6) में दो विशेषताएँ हैं। एक तो इसके पादपीठ में (सिंहासन के) सिंह द्वय के स्थान पर गज द्वय अंकित हैं। सिंहासन के सिंह और तीर्थंकर के चिन्ह रूप में सिंह या अन्य चिन्ह के अंकन में यह भिन्नता रही है कि सिंहासन के सिंह प्राय: दो ही होंगे और विरुद्धाभिमुख शिल्पित किये जायेंगे तथा चिन्ह रूप में सिंह एक या दो भी हो सकते हैं। यदि चिन्ह के लिये दो का अंकन किया जाता है तो वे अनुकूलाभिमुख रहेंगे। यहाँ गज विरुद्धाभिमुख शिल्पांकित हैं। दूसरी विशेषता यह है कि यह प्रतिमा सर्पकण्डली पर आसीन दिखाई गई है। सर्प पृष्ठासन और फणाच्छदन भी है। इससे ज्ञात होता है कि तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। किन्तु गज द्वय का अंकन यदि चिन्ह के रूप में हुआ है तो सर्प फणाच्छादन युक्त द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ की यह प्रतिमा है और यदि गजद्वय का अंकन आसन के रूप में हुआ है तो सिंहासन के स्थान पर गजासन के अंकन का यह प्रतिमा विज्ञान में अद्वितीय उदाहरण
ध्यान मुद्रा में दो प्रतिमाएँ
पाँच तीर्थंकर भित्ति प्रतिमाओं में मध्य की प्रतिमा के बाएँ तरफ की दो अन्य प्रतिमाएँ भी ध्यानमुद्रा में शिल्पित हैं। दोनों के परिकर में लगभग समानता है। पादपीठ के बीच में चक्र, चक्र के दोनों ओर समानान्तर में बहिर्मुख एक - एक सिंह, पादपीठ में ही सिंहो के बाद और समानान्तर दोनों ओर एक - एक जिन दोनों प्रतिमाओं में अंकित
प्रतिमाओं के दोनों पावों में पादपीठ के जिनों के ऊपर की ओर एक- एक चॅवरधारी अंकित हैं जो दाहिने हाथों में ही चँवर लिये दर्शाये गये हैं। इन दोनों प्रतिमाओं में से
अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000
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