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भाग 1: जैनागम एवं ध्यान तत्त्वार्थ सूत्र में आचार्य उमास्वामी ने 4 प्रकार के ध्यान ,2 बताए हैं -
आतरौद्रधर्म्यशुक्लानि ॥ तत्त्वार्थ सूत्र 9.28 || भावार्थ : ध्यान 4 प्रकार के होते है - (1) आत ध्यान (2) रौद्र ध्यान (3) धर्म ध्यान (4) शुक्ल ध्यान।
इन चारों में से शुक्ल ध्यान तो श्रुत केवली एवं केवली के ही होता है। धर्म ध्यान प्रमुखतया मुनिराज' के होता है व सम्यग्दृष्टि गृहस्थ के भी संभव है। आतध्यान व रौद्र ध्यान तो गृहस्थ अवस्था में सामान्यतया चलता ही रहता है।
इच्छित वस्तु या व्यक्ति का वियोग होने से, अप्रिय वस्तु या अप्रिय व्यक्ति के मिलने से, रोग या कष्ट आने से व चाह की ज्वाला में जलने सम्बन्धी जो चिन्तवन होता है वह आत ध्यान कहलाता है।
हिंसा में लाभ, झूठ में लाभ, चोरी में लाभ व भोग सामग्री की रक्षा करने में लाभ के चिन्तवन को रौद्र ध्यान कहा जाता है।
सामायिक पाठ में कहा है कि 'आर्त रौद्र द्वय ध्यान छाडि करहं सामयिक'। सामायिक धर्म ध्यान का एक रूप है।' । आर्त, रौद्र ध्यान से पाप का बंध होता है। इनको छोड़कर धर्म ध्यान करने से पाप का पुण्य में संक्रमण व पापों का क्षय होता है।
आत्मा, परमात्मा, कर्म व्यवस्था, सात तत्त्व, छ: द्रव्य आदि का वीतराग भाव की प्रधानतापूर्वक व आर्त रौद्र ध्यान के अभाव सहित चिन्तवन धर्म ध्यान के अन्तर्गत आते हैं। भाग 3 के प्रकरण को ध्यान में रखते हुए धर्म ध्यान के एक भेद संस्थान विचय धर्मध्यान के एक प्रभेद पदस्थ ध्यान" का विवेचन यहां करना उचित होगा। इस संदर्भ में पिण्डस्थ', कपस्थ, रूपातीत, आज्ञाविचय14, अपायविचय, विपाक विचय, संस्थान विचय" आदि का विवरण जानना भी उपयोगी होगा जिन्हें अन्यत्र देखा जा सकता है।
पदस्थ धर्म ध्यान के अन्तर्गत आर्त ध्यान एवं रौद्र ध्यान छोड़कर ॐ, या णमोकार मंत्र, या किसी पवित्र मंत्र या अकारादि स्वर, या ककारादि व्यंजन के अवलंबन पूर्वक ध्यान होता है। आचार्य शुभचन्द्र के निम्नांकित दो श्लोकों द्वारा पदस्थ ध्यान का आशय अधिक स्पष्ट हो सकता है -
पदान्यालम्ब्य पुण्यानि योगिभिर्यद्विधीयते।
तत्पदस्थं मतं ध्यानं विचित्रनय-पारगैः॥ ज्ञानार्णव - 38.1 || अर्थ : जिसको योगीश्वर पवित्र मन्त्रों के अक्षर स्वरूप पदों का अवलम्बन करके चिन्तवन करते हैं, उसको अनेक नयों के पार पहुंचने वाले योगीश्वरों ने पदस्थ ध्यान कहा है।
द्विगुणाष्टदलाम्भोजे नाभिमण्डलवर्तिनि।
भ्रमन्तीं चिन्तयेद्ध्यानी प्रतिपत्रं स्वरावलीम॥ ज्ञानार्णव - 38.3 || अर्थ : ध्यान करने वाला पुरुष नाभिमंडल पर स्थित सोलह दल (पंखड़ी) के कमल में प्रत्येक दल पर क्रम से फिरती हुई स्वरावली का (अर्थात् अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अ:) चिन्तवन करे। इसी सर्ग में आचार्य शुभचन्द्र ने ॐ, णमोकार मंत्र सहित कई मंत्रों की चर्चा
अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000