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रक्षा के पात्र हैं उन्हें असीम यातनाएं देकर मारने लगा। यह मात्र अज्ञानता और उन्माद है जिसे जैन मतानुसार प्रमाद कहा गया है। सबसे अधिक उपकारी जीव वनस्पति की भी उसने घोरतम उपेक्षा की है। फलस्वरूप वह अब उसके स्वयं के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह लगा बैठा है। पर्यावरण संबंधी जाना गया यह दर्शन, जैन दर्शन में जड़ और चेतन के बीच सूक्ष्म अंतर को भेद ज्ञान कहकर बतलाता है। रबे, जिन्हें सामान्यत: जड़ ही समझा जाता है, पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीव माने गये हैं। घोले जाने पर, पीसे जाने पर इन रबों की पर्यायें बदल जाती हैं अर्थात जन्म - मरण हो लिये होते हैं। प्रत्येक बूंद के समस्त जलीय परमाणु 'जीव' हैं। जब वे बहते हुए इकट्ठे हो लेते हैं तब छोटे जलकायिक जीवों की मृत्यु और बड़े जलकायिक जीव का जन्म हो जाता है। जो बहता पानी उसमें से हिमरूप बन अपना द्रवरूप खो देता है वह जलजीवों की मृत्यु और पृथ्वीकायिकों का जन्म है। जितने जल परमाणु वाष्पीभूत होकर उठते हैं उतनी जलकायिकों की मृत्यु और वायुकायिकों का जन्म है। जितने बादल घनीभूत हो वर्षा की बूंदें अथवा ओस बनते हैं उतनी वायुकायिकों की मृत्यु और जलकायिकों का जन्म है। इसी प्रकार लगातार एकेन्द्रिकों में जन्म मरण चलता रहता है। इन सबमें मृत्यु पाने वाला जीव और जन्म पाने वाला जीव एक भी हो सकते हैं और सर्वथा अलग भी। कभी निगोद का ऐसा जीव (इतरनिगोद) मरकर मनुष्य भी बन सकता है और मुनिव्रत धारण कर मोक्ष भी पा सकता है।
प्रत्येक उन्नत जीवन जो आज पंचेन्द्रिय मनुष्य के रूप में अति सामर्थवान दिखता है उसकी कहानी उन 84 लाख योनियों में भ्रमण करने वाली है जिसे जैनाचार्यों ने "संसार' कहा है। कभी वह क्रमश: एकेन्द्रिय से वनस्पति, फिर दो इंद्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुन्द्रिय और पंचेन्द्रिय बना। उसमें भी 9वें ग्रेवैयक तक गया किन्तु इच्छाओं ने उसे पुन: चक्र में फेंक दिया। कर्मों की यही कहानी रही है।
आधुनिक विज्ञान आहार संबंधी वर्गणाओं को कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, जल और लवण नाम से जानता है जो भले ही ठोस खाई जायें, आंतों से वे घुलित स्थिति में ही शोषित होती हैं। त्वचा से वह 'वायु स्थिति' अथवा 'ताप स्थिति' में प्राप्त होती हैं। जैन मान्यतानुसार मुँह द्वारा लिये गये चार आहार (कवलाहार, लेपाहार, रसाहार और जलाहार) माने गये हैं। ये जड़ अथवा, एकेन्द्रिय आधारभूत ही स्वीकार हैं। शाकाहारी भोजन में लहू तथा मांस की लधार नहीं होती। आधुनिक विज्ञान ने जीवन की सूक्ष्मतम स्थिति में प्रोटिस्टों (Protists) को ही माना है जैसे बैक्टीरिया, फंगाई, एक्टीनोमाइसीट्स, मोल्ड्स, खमीर, वायरस, पी.पी.एल.ओ. रिकेट्सी आदि। सर्वप्रथम एंटानी फान ल्यूवानहोक ने एक बूंद वर्षा के जल में नवनिर्मित लेंसों के द्वारा देखा कि असंख्यात जीव जिन्दा हलचल कर रहे हैं। ऐसे रूप जिन्हें पहले कभी देखा भी नहीं गया था। एक अजूबा संसार सामने था जिसे ना
'वनस्पति' पुकारा जा सकता था ना 'प्राणी'। एक बंद में वे सब तैर रहे थे। फिर इस सर्वत्र फैली जल राशि में क्या होगा? तभी गायों तथा भेड़ों में एक अजब रोग फैला जिससे एक-एक कर सारे जानवर मरने लगे। सभी में एक से ही लक्षण थे। उत्सुकता उसने एक शव के पेट के पानी की बंद को लैंसों से देखा। फिर वही तैरते जीव थे किन्तु इस बार सबके सब 'एक जैसे' ही थे। इन्हें Anthrex नाम दिया गया और उस ज्वर को, जिससे वह जीव मरे थे, 'एन्थ्रेक्स ज्वर'। उसके बाद पिछले 200 वर्षों में इन सक्ष्म जीवों पर बहत अधिक अनुसंधान कार्य हुए हैं। प्रगति भी आश्चर्यजनक हुई है। इन जीवों का विशाल संसार बहुत कुछ स्थूल में पहचाना जा चुका है। इनके आकार - प्रकार, आहार, प्रजनन, रोग उत्पादक क्षमता, इनके जीवन और निदान, इनसे उत्पादित मल और अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000
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