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मोहर पर दाँयी ओर, क्रम से उकेरे गये हैं
अ- माथे पर सींग युक्त, पीपल की डालों के बीच एक खड़ी मानवाकृति, ब - एक कम ऊँचा आसन जिस पर कुछ रखा प्रतीत होता है। स- माथे पर सींग युक्त एक नत मस्तक बैठी हुई मानवाकृति द - एक मेढ़ा
इ - नीचे की ओर पंक्तिबद्ध, पोशाख पहने सात लोग । 21 सत / सुत आसन, सत्य का
धारण करना
आसन / सिंहासन / सोम का आसन । 33 भृ
यहाँ पहली पंक्ति नत मस्तक व्यक्तित्व का वर्णन हो सकता है, मगर एक सम्भावना नत मस्तक व्यक्ति द्वारा पीपल की डाली में खड़े व्यक्ति को सम्बोधन भी हो सकता है परमात्मा / परम सत्य के उद्घोषक ? परम - व्रात्य ! सत्य / सोम / राज्य के सिंहासन का आरोहन करें।
जैन पुराण में वर्णन है कि सन्यास धारण करने के बाद ऋषभदेव छः माह तक कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े रहे। फिर उसके बाद छः माह तक प्रतिमायोग में भोजन आहार प्राप्ति के निमित्त घूमते रहे। इस बीच तीर्थंकर परम्परा से अनभिज्ञ सब राजे, महाराजे (भरत चक्रवर्ती सहित) उन्हें तरह-तरह के उपहार
इसी प्रकार अथर्ववेद के व्रात्य सूक्त में मुनि / वातरशन मुनि ?) को एक वर्ष तक पूछते हैं और जवाब में व्रात्य उन्हें आसन
व राजसिंहासन इत्यादि अर्पित करते थे। 17 वर्णन आता है कि व्रात्य (= ऋषभदेव / खड़े पाकर देव उनसे खड़े रहने का कारण देने को कहते हैं जिसे 'देव' उपलब्ध कराते हैं। 18
जैन
दोनों ही कथाओं में, एक वर्ष की अवधि के उपरान्त 'आसन' प्रदान करना उल्लेखित है। इसमें यदि अथर्ववेद की कथा के 'देव' को 'शासक' स्वीकार कर लिया जाये तो मोहर पर के चित्रांकन को समझना बहुत हद तक सरल हो जाता है। इससे, एक और सम्भावित कथा 19 के स्वीकार की सम्भावनाएँ भी बढ़ जाती हैं, जिसमें सम्भवतः चक्रवर्ती भरत अपने छोटे भाई बाहुबली की असफल तपस्या का कारण उसके मन में फँसी 'पराये राज्य' में खड़े होने के क्षोभ की भावना को जानकर उसकी मुक्ति के लिये राज्य सिंहासन अर्पण करता है। सम्भव है कि भारत की अन्यान्य पौराणिक कथाएँ, और हो सकता है कई विदेशी कथाएँ, भी किसी एक ही मूल सत्य पर आधारित हों ।
सोमत्व 20, मोहर क्रमांक 2420, 104811 य सोमामृत / य सोमामरण / सोमामर
सोम जो अमर है अथवा सोम में जो अमर है।
सिर पर सींग धारण कियेहुए तीन दृश्यमान चेहरे युक्त आसन पर विराजमान
अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000