Book Title: Anuyogdwar Sutra Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 14
________________ अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७६ सलक्षणहास्यरसंनिरूपणम् ३ सर्वथा त्यागेन धन्यता माप्ता एव केचित् प्राणिनो मुञ्चन्ति परित्यजन्ति । शरीरा सारतां सम्यगुपलब्धस्य वैराग्यवतः कस्यचिदियमुक्तिः ॥१० १७५॥ अथ सप्तमं हास्यरसं सलक्षणमाह मूलम्-रूववयवेसभासाविवरीयविडंबणा समुप्पण्णो। हासो मणप्पहासो पगासलिंगो रसो होइ ॥१॥ हासो रसो जहापासुत्तमसीमंडिअपडिबुद्धं देवरं पलोयंति। ही जह थणभर कंपणपणमियमज्झा हसइ सामा ॥२॥सू०१७६॥ छाया-रूपवयोवेषभाषा विपरीतविडम्बनासमुत्पन्नः। मनः महास प्रकाशलिङ्गो रसो भवति ॥१॥ हास्यो रसो यथा-प्रसुप्तमषीमण्डितमतिबुद्ध देवरे प्रलोकमाना ही यथा स्तनभरकम्पनपणतमध्या हसति श्यामा॥२॥२०१७६।। टीका-'ख्ववय' इत्यादि'रूपवयोवेषभाषाविपरीतविडम्बनासमुत्पन्न:-रूपस्य-आकृतेः, वयसा अवस्थायाः, वेषस्य-वस्त्रपरिधानपरिपाटयाः भाषायाश्च या विपरितविडम्बना धन्य बने हुए कितनेक भाग्यशाली जन ही छोड़ते हैं। शरीर की असारता को भली भांति ज्ञात करचुकने वाले किसी वैरागी की यह पूर्वोक्त उक्ति है ।। सू० १७५ ॥ अब सूत्रकार सातवां रस जो हास्य रस है, उसका निदेशपूर्वक कथन करते हैं-"रूववध वेस" इत्यादि। शब्दार्थ-(रूववयवेसभासाविवरीयविडंषणासमुप्पण्णो) .. हास्यरस रूप, वय, वेष और भाषा की विपरीत विडंबना से होता है। पुरुष द्वारा स्त्री का रूप धारण करना स्त्री द्वारा पुरुष કેટલીક ભાગ્યશાલી વ્યક્તિઓ પિતાની જાતને ધન્ય બનાવે છે. શરીરની અસાંકડ સારી રીતે જાણનારા કેઈ વૈરાગ્યયુકત સજજનની આ ઉક્તિ છે. સૂપ હવે સૂત્રકાર સાતમા હાસ્યરસનું કથન કરે છે– "रूववयवेस" त्याल हाथ-(रूववयवेसभासाविवरीयविडं षणासमुप्पण्णो) मा हास्य રૂપ, વય, વેષ અને ભાષાની વિપરીત વિડંબનાથી ઉત્પન્ન થાય છે વડે સ્ત્રીનું રૂપ ધારણ કરવું, ઓ વડે પુરૂષનું રૂપ ધારણ કરવું એ કપની

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