Book Title: Anusandhan 1997 00 SrNo 10 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 7
________________ N 'मंगलवाद' ए तेमनी अप्रकट रचना तो छे ज, परंतु अज्ञात रचना पण छे. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास (मो.द.देसाई) तथा जैन परम्परानो इतिहास (दर्शनविजयजी त्रिपुटी) जेवा संदर्भ ग्रंथोमां एमनी विविध कृतिओनी उपलब्ध यादीओमां पण 'मंगलवाद'नुं नाम नथी. आ ग्रंथनी नकल पण अद्यावधि क्यांय जोवा मळी नथी. आनी एक मात्र प्रति, ते पण ग्रंथकार मुनिराजना पोताना ज हस्ताक्षरमां, भावनगरनी श्री जैन आत्मानन्द सभामांना पं. श्री भक्तिविजयजी ग्रंथसंग्रहमां मोजूद छे. तेनी झेरोक्स नकलना आधारे आ संपादन अहीं प्रस्तुत छे. नवीन न्यायना अभ्यासीओ मंगलवाद अने ईश्वरवादथी अवश्य परिचित होय ज. एमां ज एमनी तार्किकतानो पायो नंखातो होय छे. ए ज कारणे आ विषय एमने माटे रसप्रद पण बनी ज रहेवानो. आवा मजाना विषयने लईने रचाएली एक कृतिनो उद्धार आ स्वरूपे थई शके छे तेनो आनंद छे. आ ग्रंथनी झेरोक्स नकल करावी आपवा बदल, भावनगरनी श्रीजैन आत्मानन्द सभाना तंत्रवाहकोनो आभार मानुं छं. वाचक सिद्धिचन्द्र गणि विशे अत्रे नोंधेली केटलीक विगतो "जैन परंपरानो इतिहास-३" (ले. त्रिपुटी-मुनि दर्शनविजयजी, ई. १९६४, अमदावाद)न्म आधारे लीधेल छे. -x--x--- वाचक सिद्धिचन्द्रगणिकृतः मङ्गलवादः एँ नमः ॥ शकेश्वरपुराधीशं श्रेयोवल्लीनवाम्बुदम् । विघ्नौघमत्तमातङ्ग-पञ्चास्यं श्रीजिनं भजे ॥ १॥ अथ मङ्गलवादः प्रारभ्यते ॥ तत्र "मङ्गलमङ्गं , ग्रन्थः प्रधानं, समाप्तिः फलं, विघ्नध्वंसो द्वारं" इत्युदयनाचार्यः । अङ्गत्वं च यद्यपि न तावत् फलवत्सन्निधिमत्त्वे सत्यफलत्वं, मङ्गलेऽफलत्वाभावात् समाप्तिफलकत्वात् । नाऽपि प्रधानफलाति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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