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अंगविजापइण्णायं एक अक्षर, द्वि अक्षर, त्रि अक्षर आदि कई तरह के नाम हैं। दो अक्षरों वाले नाम दो प्रकार के होते हैं-जिनके दोनों अक्षर गुरु हों, जिनका पहला अक्षर लघु और बाद का अक्षर गुरु हो । इनके उदाहरणों में वे ही नाम हैं जो कुषाण काल के शिलालेखों में मिलते हैं जैसे तात, दत्त, दिण्ण, देव, मित्त, गुत्त, भूत, पाल, पालि, सम्म, यास, रात, घोस विद्धि, नंदि, नंद, मान । और भी, उत्तर, पालित, रक्खिय, नंदन, नंदिक, नंदक, ये नाम भी उस युग के नामों की याद दिलाते हैं जिन्हें हम कुषाण और पूर्वगुप्त काल के शिलालेखों में देखते हैं। - इसके बाद वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर को लेकर विस्तृत ऊहापोह की गई है कि नामों में उनका प्रयोग किस-किस प्रकार किया जा सकता है।
इस अध्याय के अन्त में मनुष्य नामों की कई सूचियाँ दी गई हैं जिनमें अधिकांश नाम कुषाणकालीन संस्कृति के प्रतिनिधि हैं। उस समय नक्षत्र देवताओं के नाम से एवं नक्षत्रों के नाम से मनुष्य नाम रखने की प्रथा थी। नक्षत्र देवताओं के उदाहरणों में चंद (चन्द्र) रुद्द (रुद्र ), सप्प ( सप), अज्ज (अर्यमा ), तट्ठा (त्वष्टा ), वायु, मित्त (मित्र ), इन्द ( इन्द्र), तोय, विस्से ( विश्वदेव ), ऋजा, बंभा (ब्रह्मा ), विण्हु ( विष्णु), पुस्सा (पुष्य ) हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि उस समय प्राकृत भाषा के माध्यम से नामों का जो रूप लोक में चालू था, उसे ज्यों का त्यों सूची में ला दिया है। जैसे, अर्यमा के लिये अज्जो और विश्वदेव के लिये विस्से । नक्षत्र नामों में अद्दा, पूसो, हत्थो, चित्ता, साती, जेट्ठा, मूला, मघा ये रूप हैं। दाशाह या वृष्णियों के नाम भी मनुष्य नामों में चालू थे जैसे, कण्ह, राम, संब, पज्जुण्ण ( प्रद्युम्न ), भाणु,। नामों के अन्त में जुड़नेवाले उत्तर पदों की सूची विशेष रूप से काम की है क्योंकि शुंग और कुषाण काल के लेखों में अधिकांश उसका प्रयोग देखा जाता है ; जैसे त्रात, दत्त, देव, मित्त, गुत्त, पाल, पालित, सम्म (शर्मन् ), सेण ( सेन ), रात ( जैसे वसुरात ), घोस, भाग।
नामों के चार भेद कहे हैं :-प्रथम अक्षर लघु, अन्तिम अक्षर गुरु, सर्वगुरु एवं अन्तिम अक्षर लघु । इनके उदाहरण ये हैं- अभिजि (अभिजित् ।, सवण (श्रवण ), भरणी, अदिती, सविता, णिरिती (निति), वरुण। और भी कत्तिका, रोहिणी, आसिका, मूसिका, वाणिज । मगधा, मधुरा, प्रातिका, फग्गुणी, रेवती, अस्सयो (अश्वयुक), अज्जमा (अर्यमन ), अश्विनौ, विसाहा, आसाढा, धणिट्ठा, ईदगिरि। सर्वगुरु नामों की सूची में रोहतात, पुस्सत्रात, फग्गुबात, हत्थत्रात, अस्सत्रात। उपान्त्य लघुनामों में रिघसिल (पाठा रिषितिल) श्रवणिल, पृथिविलइन नामों में स्पष्ट ही उत्तरपद का लोप करने के बाद इल प्रत्यय जोड़ा गया है जिसका विधान अष्टाध्यायी में आया है घनिलचौ ५।३ । ७९)। इल वाले नाम साँची के लेखों में बहुत मिलते हैं-अगिल (अग्निदत्त ), सातिल ( स्वातिदत्त ), नागिल ( नागदत्त ), यखिल ( यक्षदत्त ), बुधिल (बुद्धदत्त)। ससित्रात, पितृत्रात, भवत्रात, वसुत्रात अजुत्रात, यमत्रात-ये प्रथम लघु अक्षरवाले नाम थे। शिवदत्त, पितृदत्त, भवदत्त, वसुदत्त, अजुदत्त, यमदत्त, उपान्त्यगुरु नामों के उदाहरण हैं। अंगविज्जा के नामों का गुच्छा इस विषय की मूल्यवान सामग्री प्रस्तुत करता है। आगे चलकर गुप्त काल में जब शुद्ध संस्कृत भाषा का पुनः प्रचार हुआ तब मनुष्य नाम भी एकदम संस्कृत के साँचे में ढल गये, जैसे सत्यमित्र, ध्रतिशर्मा आदि। अंगविज्जा में उनकी बानगी नहीं मिलती पृ० १५८)।
सत्ताइसवें अध्याय का नाम ठाणज्झाय है। इसमें ठाण अर्थात् स्थान या सरकारी अधिकारियों के पदों की सूची है। राज्याधिकारियों की यह सूची इस प्रकार है-राजा, अमच्च, नायक, आसनस्थ ( संभवतः । व्यवहारासन का अधिकारी), भांडागारिक, अभ्यागारिक (संभवतः अन्तःपुर का अधिकारी जिसे दौवारिक या गृहचिन्तक भी कहते थे), महाणसिक (प्रधान रसोइया), गजाध्यक्ष, मज्जघरिय (मद्यगृहक), पाणियधरिय ,
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