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भूमिका तोन प्रकार के होते हैं-कौशेय या रेशमी, पतुज, पाठान्तर पउण्ण = पत्रोर्ण और आविक। श्राविक को चतुष्पदं पशुओं से प्राप्त अर्थात् अविके बालों का बना हुआ कहा गया है, और कौशेय या पत्रोर्ण को कीड़ों से प्राप्त सामग्री के आधार पर बना हुआ बताया गया है। इसके अतिरिक्त क्षौम, दुकूल, चीनपट्ट, कार्पासिक ये भो वस्त्रों के भेद थे। धातुओं से बने वस्त्रों में लोहजालिका-लोहे की कड़ियों से बना हुआ कवच जिसे अंगरी कहा जाता है, सुवर्णपट्ट-सुनहले तारों से बना हुआ वस्त्र, सुवर्णखसित-सुनहले तारों से खचित या जरीके काम का वस्त्र। और भी वस्त्रों के कई भेद कहे गये हैं जैसे परग्ध-बहुत मूल्य का, जुत्तग्घ-बीच के मूल्य का, समग्घ-सस्ते मूल्य का, स्थूल, अणुक या महीन, दीर्घ, ह्रस्व, प्रावारक-ओढ़ने का दुशाला जैसे वस्त्र, कोतव-रोएंदार कम्बल जिसे कोचव भी कहते थे और जो संभवतः कूचा या मध्य एशिया से आता था, उणिक (ऊनी , अत्थरक-आस्तरक या बिछाने का वस्त्र, महोन रोंएदार (तणुलोम ), हस्सलोम, वधूवस्त्र, मृतक वस्त्र, श्रातवितक (अपने और पराये काम में आनेवाला), परक ( पराया , निक्खित्त ( फेंका हुआ , अपहित चुराया हुआ ), याचित ( माँगा हुआ ) इत्यादि ।
रंगों की दृष्टि से श्वेत, कालक, रक्त, पीत, सेवालक (सेवाल के रंग का हरा), मयूरग्रीव (नीला), करेणूयक , श्वेत-कृष्ण), पयुमरत्त, (पद्मरक्त अर्थात् श्वेतरक्त), मैनसिल के रंग का ( रक्तपीत्त ), मेचक ( ताम्रकृष्ण ) एवं उत्तम मध्यम रंगोंवाले अनेक प्रकार के वस्त्र होते थे। जातिपट्ट नामक वस्त्र भो होता था। मुख के ऊपर जाली (मुहोपकरणे उद्धंभागेसु य जालकं ) भो डालते थे। उत्तरीय और अन्तरीय वस्त्र शरीर के ऊर्ध्व और अधर . भाग में पहने जाते थे। बिछाने की दरी पच्चत्थरण और वितान या चंदोवा विताणक कहलाता था (पृ० १६३-४)।
३२ वें अध्याय की संज्ञा धण्णजोणी (धान्ययोनि ) है। इस प्रकरण में शालि, व्रीहि, कोदों, रालक ( धान्य विशेष, एक प्रकार की कंगु ), तिल, मूंग, उड़द, चने, कुल्थी, गेहूँ आदि धान्यों के नाम गिनाये हैं। और स्निध रूक्ष, श्वेत, रक्त, मधुर, आम्ल, कषाय आदि दृष्टिओं से धान्यों का वर्गीकरण किया है (पृ०१६४-५)।
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३३ वें जाणजोणी ( यानयोनि ) नामक अध्याय में नाना प्रकार के यानों का उल्लेख है। जैसे शिबिका, भद्दासन, पल्लंकसिका (पालकी), रथ, संदमाणिका ( स्यन्दमानिका एक तरह की पालकी), गिल्ली (डोली), जुग्ग (विशेष प्रकार की शिबिका जो गोल्ल या आन्ध्र देश में होती थी), गोलिंग, शकट, शकटी इनके नाम आए हैं। किन्तु जलीय वाहनों को सूची अधिक महत्त्वपूर्ण है। उनके नाम ये हैं नाव, पोत, कोट्टिम्ब, सालिक, तप्पक, प्लव, पिण्डिका, कंडे, वेलु, तुम्ब, कुम्भ, दति (इति)। इनमें नाव और पोत महावकाश अर्थात् बड़े परिमाणवाले जहाज थे जिनमें बहुत आदमियों के लिये अवकाश होता था। कोटुिंब, सालिक, संघाड, प्लव और तप्पक मझले आकार की नावें थीं। उससे छोटे कट्ठ ( कंड) और वेलू होते थे। और उनसे भी छोटे तुम्ब, कुम्भ और दति कहलाते थे। जैसा श्री मोतीचन्दजी ने अंग्रेजी भूमिका में लिखा है पेरिप्लस के अनुसार भरुकच्छ के बन्दरगाह में त्रप्पग और कोटिम्ब नामक बड़े जहाज सौराष्ट्र तक की यात्रा करते थे। यही अंगविज्जा के कोटिंब और तप्पग हैं। पूर्वी समुद्र तट के जलयानों का उल्लेख करते हुए पेरिप्लस ने संगर नामक जहाजों का नामोल्लेख किया है जो कि बड़े-बड़े लट्ठों को जोड़कर बनाये जाते थे। येही अंगविजा के संघाड (सं० संघाट ) हैं। वेलू बाँसों का बजरा होना चाहिए। कांड और प्लव भी लकड़ी या लट्ठों को जोड़कर बनाये हुए बजरे थे। तुम्बी और कुम्भ की सहायता से भी नदी पार करते थे। इनमें दति या दृति का उल्लेख
रोचक है। इसे ही अष्टाध्यायी में भला कहा गया है। भेड़-बकरी या गाय-भैंस की हवा से फुलाई हुई खालों को भला कहा जाता था और इस कारण भत्रा या दृति उस बजड़े या तमेड़ के लिये भी प्रयुक्त होने लगा जो इस प्रकार की खालों को एक दूसरे में बाँधकर बनाये जाते थे। इन फुलाई हुई खालों के ऊपर बाँस बाँधकर या
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