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. भूमिका - सारवान व्यक्तियों में हेरण्णिक, सुवणिक, चन्दन के व्यापारो, दुस्सिक, संजुकारक (संजु अर्थात् संज्ञा द्वारा भाव ताव या मोल-तोल करनेवाले जौहरी, जो कपड़े के नीचे हाथ रखकर रत्नोंका दाम पक्का करते थे , देवड ( देवपट अर्थात् देवदूष्य बेचनेवाले सारवान व्यापारी ), गोवज्झमतिकारक (=गोवाभृतिकारक, बैलगाड़ी से भृति कमाने वाला, वज्झ=सं० वह्य), ओयकार (ओकसकार-घर बनाने वाला ), ओड ( खनन करनेवाली जाति)। गृहनिर्माण संबंधी कार्य करनेवालों में ये नाम भी हैं-मूलखाणक (नींव खोदनेवाले ), कुंभकारिक (कुम्हार जो मिट्टी के खपरे आदि भी बनाते हैं ), इड्डकार (संभवतः इष्टका, ईंटे पाथने वाले ) बालेपतुंद (पाठान्तर-छावेपवुद अर्थात् छोपने वाले, पलस्तर करने वाले ), सुत्तवत्त (रस्सी बटने वाले ; वत्ता=सूत्रवेष्टन यंत्र, पाइयसहमहण्णवो), कंसकारक (कसेरे जो मकान में जड़ने के लिए पीतल-ताबें का सामान बनाते थे), चित्तकारक (चितेरे जो चित्र लिखते थे), रूवपक्स्नर (रूपमूर्ति का उपस्कार करने वाले), फलकारक ( संभवतः लकड़ी के तख्तों का काम करने वाला ), सीकाहारक और मड्डहारक इनका तात्पर्य बालू और मिट्टी ढोनेवालों से था; सीक =सिकता, मडु मृत्तिका। कोसज्जवायक (रेशमी वस्त्र बुनने वाले), दिअंडकंबलवायका (विशेषनाप के कम्बल बुनने वाले); कोलिका ( वस्त्र बुनने वाले ), वेज (वैद्य), कायतेगिच्छका (काय-चिकित्सक ), सल्लकत्त (शल्यचिकित्सक), सालाकी (शालाक्य कर्म, अर्थात् अक्षि, नासिका आदि की शल्य चिकित्सा करने वाले), भूतविजिक (भूतविद्या या ग्रहचिकित्सा करने वाले) कोमारभिच्च (कुमार या बालचिकित्सा करने वाले), विसतिस्थिक (विषवैद्य या गारुडिक), वैद्य, चर्मकार, एहाविय-स्नापक, ओरब्भिक ( औरभ्रिक गडरिये ), गोहातक (गोघातक या सूना कर्म करने वाले), चोरघात (दंडपाशिक, पुलिस अधिकारी), मायाकारक (जादूगर), गौरीपाढक (गौरीपाठक, संभवतः गौरीव्रत या गौरीपूजा के अवसर पर पाठ करने वाले ), लंखक ( बांस के ऊपर नाचने वाले ), मुट्ठिक ( मौष्टिक, पहलवान ), लासक (रासक, रास गाने वाले ), वेलंबक (विडंबक, विदूषक ), गंडक (गंडि या घंटा बजाकर उद्घोषणा करने वाले ), घोषक (घोषणा करने वाले )-इतने प्रकार के शिल्पिों का उल्लेख कर्म-योनिनामक प्रकरण में आया है (पृ० १६०-१)।
उन्तीसवें अध्याय का नाम नगर विजय है। इस प्रकरण में प्राचीन भारतीय नगरों के विषय में कुछ सूचनाएँ दी गई हैं। प्रधान नगर राजधानी कहलाता था। उसीसे सटा हुआ शाखानगर होता था। स्थायी नगर 'चिरनिविष्ट और अस्थायी रूप से बसे हुए अचिरनिविष्ट कहलाते थे। जल और वर्षा की दृष्टि से बहूदक या बहुवृष्टिक एवं अल्पोदक या अल्पवृष्टिक भेद थे। कुछ बस्तियों को चोरवास कहा गया है (जैसे सौराष्ट्र के समुद्र तट पर बसे वेरावल के पास अभी भी चोरवाड़ नामक नगर है)। भले मनुष्यों की बस्ती आर्यवास थी।
और भी कई दृष्टियों से नगरों के भेद किये जाते थे-जैसे परिमंडल और चतुरस्र, काष्ठप्राकार वाले नगर (जैसा प्राचीन पाटलिपुत्र था) और इंट के प्राकार वाले नगर (इट्टिकापाकार), दक्षिणमुखी और वाममुखी नगर, पविट्ठ नगर (घनी बस्ती वाले), विस्तीर्ण नगर (फैलकर बसे हुए), गहणनिविट्ठ (जंगली प्रदेश में बसे हुए), उससे विपरीत आरामबहुल नगर (बाग-बगीचोंवाले ; अं० पार्क सिटी), ऊँचे पर बसे हुए उद्धनिविट्ठ, नीची भूमिमें बसे हुए, निव्विगंदि (सम्भवतः विशेष गन्ध वाले), या पाणुप्पविट्ठ (चांडालादि जातियों के वासस्थान; पाण=श्वपच चांडाल, देशीनाममाला ६३३८)। प्रसन्न या अतीक्ष्ण दंड और अप्रसन्न या बहुविग्रह, अल्प परिक्लेश और बहुपरिक्लेश नगर भी कहे गये हैं। पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर दिशाओं की दृष्टि से, अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्षों की दृष्टि से भी नगरों का विभाग होता था। बहुअन्नपान, अल्पअन्नपान, बहुवतक (बहुवात या प्रचंड वायु के उपद्रव वाले), बहुउण्ह ( अधिक उष्ण ), आलीपणकबहुल (बहु आदीपन या अग्नि वाले), बहूदक बहुवृष्टिक, बहूदकवाहन नगर भी कहे गये हैं (पृ० १६१-१६२)।
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