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अंगविजापइण्णयं हो सकता है-प्राणयोनिगत, मूलयोनिगत और धातुयोनिगत । प्राणयोनि संबंधित उपलब्धि मोती, शंख, गवल (=सींग), बाल, दन्त, अस्थि आदि से बने हुए पात्रों के रूप में संभव है। मूलयोनि चार प्रकार की कही गई है मूलगत, स्कन्धगत, पत्रगत, फलगत । धातुयोनि का संबंध सब प्रकार के धातु, रत्न, मणि आदि से है; जैसे लोहिताक्ष, पुलक, गोमेद, मसारगल्ल, खारमणि-इनकी गणना मणियों में होती है। घिस कर अथवा चीर कर और कोर करके बनाई हुई गुरियाँ और मणके मणि, शंख और प्रवाल से बनाये जाते थे। वे विद्ध और अविद्ध दो प्रकार के होते थे। उनमें से कुछ आभूषणों के काम में आते थे। गुरिया या मनके बनाने के लिये खड़ पत्थर भिन्न-भिन्न आकृति या परिमाण के लिये जाते थे। जैसे अंजण ( रंगीन शिला), पाषाण, शर्करा, लेटठुक (डला ) ढल्लिया (डली ), मच्छक ( पहलदार छोटे पत्थर ), फल्ल (रवेदार संग या मनके )-इन्हें पहले चीर कर छोटे परिमाण का बनाते थे। फिर चिरे हुए टुकड़े को कोर कर ( कोडिते ) उस शकल का बनाया जाता था, जिस शकल की गुरिया बनानी होती थी। कोरने के बाद उस गुरिया को खोडित अर्थात् घिस कर चिकना किया जाता था। कडे संग या मणियों के अतिरिक्त हाथी दांत और जंगली पशुओं के नख भी (दंतणहे) काम में लाये जाते थे। इन दोनों के कारीगरों को दंतलेखक और नख लेखक कहा जाता था। बड़े टुकड़ों को चीरने या तराशने में जो छोटे टुकड़े या रेजे बचते थे उन्हें चुण्ण कहा जाता था जिन्हें आज कल चुन्नी कहते हैं। इन सबकी गणना धन में की जाती थी। . इसके अतिरिक्त कुछ प्रचलित मुद्राओं के नाम भी हैं, जो उस युग का वास्तविक द्रव्य धन था; जैसे काहावण ( कार्षापण ) और णाणक । काहावण या कार्षापण कई प्रकार के बताये गये हैं। जो पुराने समय से चले आते हुए मौर्य या शुंग काल के चांदी के कार्षापण थे उन्हें इस युग में पुराण कहने लगे थे, जैसा कि अंगविज्जा के महत्त्वपूर्ण उल्लेख से (आदिमूलेसु पुराणे बूया ) और कुषाणकालीन पुण्यशाला स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है (जिसमें ११०० पुराण मुद्राओं का उल्लेख है)। पृ० ६६ पर भी पुराण नामक कार्षापण का उल्लेख है। पुरानी कार्षापण मुद्राओं के अतिरिक्त नये कार्षापण भी ढाले जाने लगे थे। वे कई प्रकार के थे, जैसे उत्तम काहावण, मज्झिम काहावण, जहण्ण ( जघन्य ) काहावण । अंगविज्जा के लेखक ने इन तीन प्रकार के कार्षापणों का और विवरण नहीं दिया। किन्तु ज्ञात होता है कि वे क्रमशः सोने, चाँदो और तांबे के सिक्के रहे होंगे, जो उस समय कार्षापण कहलाते थे। सोने के कार्षापण अभी तक प्राप्त नहीं हुए किन्तु पाणिनि सूत्र ४. ३. १५३ (जातरूपेभ्यः परिमाणे ) पर हाटकं कार्षापणं यह उदाहरण काशिका में आया है। सूत्र ५. २. १२० (रूपादाहत प्रशंसयोर्यप्) के उदाहरणों में रूप्य दीनार, रूप्य केदार और रूप्य कार्षापण इन तीन सिक्कों के नाम काशिका में आये हैं। ये तीनों सोने के सिक्के ज्ञात होते हैं। अंगविज्जा के लेखक'ने मोटे तौर पर सिक्कों के पहले दो विभाग किए-काहावण और णाणक । इनमें से णाणक तो केवल तांबे के सिक्के थे। और उनकी पहचान कुषाण कालीन उन मोटे पैसों से की जा सकती है जो लाखोंकी संख्या में वेमतक्षम, कनिष्क, हुविष्क, वासुदेव आदि सम्राटों ने ढलवाये थे। णाणक का उल्लेख मृच्छकटिक में भी आया है, जहाँ टीकाकार ने उसका पर्याय शिवाङ्क टंक लिखा है। यह नाम भी सूचित करता है कि णाणक कुषाण कालीन मोटे पैसे ही थे, क्योंकि उनमें से अधिकांश पर नन्दोवृष के सहारे खड़े हुए नन्दिकेश्वर शिव की मूर्ति पाई जाती है। णाणक के अन्तर्गत तांबे के और भी छोटे सिक्के उस युग में चालू थे जिन्हें अंगविज्जा में मासक, अर्धमासक, काकणिाऔर अट्ठा कहा गया है। ये चारों सिक्के पुराने समय के तांबे के कार्षापण से संबंधित थे जिसकी तौल सोलह मासे या अस्सी रत्ती के बराबर होती थी। उसी तौल माप के अनुसार मासक सिक्का पांच रत्ती का, अर्धमासक ढाई रत्ती का, काकणि सवा रत्ती की और अट्ठा या अर्धकाकणि उससे भी श्राधी तौल की होती थी। इन्हीं चारों में अर्धकाकणि पञ्चवर (प्रत्यवर) या सबसे छोटा सिक्का था। कार्षापण सिक्कों को उत्तम, मध्यम और जघन्य
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