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अंगविजापइण्णयं आभरण, चिरप्रवास से सफलयात्रा या सिद्धयात्रा के साथ लौटने पर स्वजन संबंधियों से समागम, भूताधिपत्य, पुण्य उत्पत्ति, चैत्य पूजा के महोत्सव ( महामहिक) में तूर्य शब्दों का श्रवण, चोरी हुए, भ्रष्ट या नष्ट धन की पुनः प्राप्ति, अष्टमांगलिक चिह्नों (चिंधट्ठय) को सुवर्ण में बनाकर उनका उच्छित करना, छत्र, उपानह, श्रृंगार का संप्रदान, रक्षा और सम्पत्ति की प्राप्ति, इच्छानुकूल आनन्द प्राप्त होना, किसी विशेष शिल्प के कारण संपूजन और अभिवन्दन, स्वच्छ जल की उत्पत्ति और दर्शन, मन में उत्तम विचार की उत्पत्ति, जलपात्र या जलाशय का पूर्ण होना, जातकर्म आदि संस्कारों में प्रशस्त अग्नि का प्रज्वलित करना, आयुष्य, धन, अन्न, कनक, रत्न, भाजन, भूषण, परिधान, भवन आदि सुखकारी संपदा की प्राप्ति, आर्जव युक्त साधुओं का पूजन, ज्येष्ठ और अनुज्येष्ठ की नियुक्ति, ज्योति, अग्नि, विद्युत् , वज्र, मणि, रत्न आदि से तृप्ति, जन्म आदि अवसरों पर होने वाले मंडन या शोभा, आर्यजनों का संमान और पूजा, ध्यान की आराधना, पुरानी वस्तुओं का नवीकरण, अध्यात्म-गति विषयक दर्शन, किसी आढ्य पुरुष का याग, आभूषणों का झंकृत शब्द इत्यादि अनेक प्रकार के प्रशस्त या उत्तम भाव लोक में है। जहाँ मन की रुचि हो, जो इन्द्रियों को इष्ट जान पड़े, एवं लोक जिसकी पूजा करता हो, उसे ही प्रशस्त जानना चाहिए (पृष्ठ १४६-१४८)।
तेइसवें अध्याय में अप्रशस्त वस्तुओं का उल्लेख है जिसमें रुदन, क्रोध, बुभुक्षा आदि नाना प्रकार के हीन और विनाशकारी भावों की सूची है (पृ. १४८)।
चौबीसवें अध्याय की संज्ञा जातिविजय है। आर्य और म्लेच्छ दो प्रकार के मनुष्य हैं। आर्य के अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की गणना है। म्लेच्छवर्ग को गिनती शूद्रों में है। यह कथन पतंजलि के उस कथन से मिलता है जहाँ महाभाष्य में उन्होंने शक-यवनों का परिगणन शूद्रों में किया है। ज्ञात होता है कि भारतीय इतिहास के उस युग का यह सामाजिक तथ्य था जिसका उल्लेख अंगविज्जा के लेखक ने भी किया है। इन जातियों में कुछ महाकाय ( लम्बे शरीर वाले), कुछ मज्झिमकाय (मझले कद के) और कुछ छोटे कद के होते थे। कुछ लोग व्यवहारोपजीवी, कुछ शस्त्रोपजीवी और कुछ क्षेत्रोपजीवी या कृषि से जीविका करते थे। उनके रहने के स्थान नगर, अरण्य, द्वीप, पर्वत, उद्यान (निक्खुड-निष्कुट) आदि थे। पुरथिमदेसीय, दक्खिणदेसीय, पच्छिमदेसीय, उत्तरदेसोय-इस प्रकार से चार दिशाओं में रहने वाले जन कहे गए हैं। एक दूसरा विभाग आर्य-देश और अनार्य-देश निवासियों का था (पृष्ठ १४९)।
पञ्चीसवाँ अध्याय गोत्र नामक है। गोत्र दो प्रकार के थे। पहले गृहपतिक गोत्र और दूसरे द्विजातीय । इस वर्गीकरण में गृहपति शब्द का अर्थ ध्यान देने योग्य है। गृहपति उस वर्ग की संज्ञा थी जो बौद्ध और जैन धर्म के अनुयायी थे। उन धर्मों में अनगारिक या गृहहीन व्यक्ति तो श्रमण या मुंडक होते थे, और गृही या अगारिक सामान्य रूप से गृहपतिक कहलाते थे। उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का भेद उन धर्मों को मनःपूत न था। किन्तु ब्राह्मण धर्मानुयायी गृहस्थ द्विजाति कहलाते थे। गृहपतियों के गोत्रों में माढ़, गोल, हारित, चंडक, सकित (कसित), वासुल, वच्छ, कोच्छ, कासिक, कुंड ये नाम हैं (पृ० १४९)। .
ब्राह्मण गोत्र चार प्रकार के कहे गये हैं-(१) सगोत्र ( ऋषि गोत्र )(२) सकविगत गोत्र (इसका तात्पर्य लौकिक गोत्रों से ज्ञात होता है, जो ऋषि गोत्रों से अतिरिक्त थे।) (३) बंभचारिक गोत्र ( उन नैष्ठिक ब्रह्मचारियों के गोत्र जिन्हों ने ऊर्ध्वरेता होने के कारण गृहस्थ धर्म धारण नहीं किया और शान्तनव भीष्म के समान जिन्हें अन्य सब लोगों ने अपना मान लिया था), (४) एवं प्रवर गोत्र । इसी प्रसंग में कुछ गोत्रों के नाम भी दिये गये हैं, जैसे-मंडव (मांडव्य), सेट्टिण, वासेठ्ठ, सांडिल्ल (शांडिल्य ), कुम्भ, माहकी, कस्सव. (काश्यप), गोतम, अग्गिरस, भगव (भार्गव), भागवत, सहया, ओयम, हारित, लोकक्खी (लौगाक्षि), पचक्खी, चारायण, पारावण, अग्गिवेस्स
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