Book Title: Anekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 11
________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 11 का मंदिर नहीं बना और न उसके जीव की पूजा होती है। सम्मान और पूज्यत्व के अन्तर को वैदिक समाज ने विवेकपूर्ण समझा और अनुभूत किया, ऐसा प्रतीत होता है। राजकुमार पार्श्व के जीव ने जलते-जलते नाग-युगल के जीव को णमोकार मंत्र रूप सम्यक् भाव-बोध कराया, जिसके फलस्वरूप वे धरणेन्द्र-पद्मावती (पति-पत्नी रूप) देव-देवी हुए और अभी भी हैं। कमठ के उपसर्ग के निवारण हेतु धरणेन्द्र-पद्मावती के जीव ने ध्यानस्थ मुनि पार्श्वनाथ के ऊपर फण फैलाया। उनकी उदात्त भावनाएं अद्भुत थीं। मुनि पार्श्व आत्मध्यान में मग्न थे और उसी अवस्था में उन्हें केवलज्ञान हुआ। मोह-राग-द्वेष से मुक्त हुए। उपकार के ज्ञाता बन गये। लोक जीवन में यही होता है। सभी एक दूसरे का उपकार करते हैं। दूसरे उनके उपकार के ज्ञाता होते हैं जबकि उपकार से लाभान्वित व्यक्ति उपकारी के प्रति कृतज्ञता का भाव बनाए रखता है। उक्त कथानक यही शिक्षा देते हैं कि "कृतघ्न न बनो, कृतज्ञ बनो; किन्तु अनंतभव-वर्धक मिथ्यात्व ग्रहण नहीं करो।" किसी के अन्य व्यक्ति के उपकारी जीव का दूसरे जन पूजा करेंगे तो वह अंध श्रद्धा होगी और शक्ति का अपव्यय होगा, यह बात हमें तत्वज्ञान एवं श्रद्धान से ज्ञात होती है। (10) पर-उपकारी को सम्मानित करें, दण्डित न करें वर्तमान पर्याय में भद्र परिणामी धरणेन्द्र और पद्मावती दंपति (देव-देवी) के रूप में जीवन यापन कर रहे हैं। पद्मावती के भक्तों की गतिविधियों को भी वे देखते है।। पदमावती का अभिषेक, पूजा और वस्त्र परिवर्तन-श्रृंगार आदि की क्रिया देखकर धरणेन्द्र अवश्य शर्माता (लज्जित) होता होगा। उसके जीते जी उसकी पत्नी को दूसरे जन छूएँ, यह कितना अनुचित है। क्या कोई अपनी पत्नी को इस रूप में देख सकता है ? विचारणीय है। हम अपनी भक्ति-पूजा के भाव को आरोपित करने में स्वतंत्र हैं; परन्तु हमें दूसरों की भाव हिंसा से भी बचना चाहिए। सम्यक्त्व-मिथ्यात्व की उपेक्षा भी कर दे तो कम-से-कम सभ्य जगत् के लोकाचार की मर्यादा का उल्लंघन न हो तो उत्तम है। सत् स्वरूप को जीवन में प्रतिष्ठित करें। अपने उपकारी के प्रति विश्वासघात न करें, उसके प्रति कृतज्ञ ही रहें। विश्वासघात मिथ्यात्व जैसा महापाप है। पर-के-उपकारी को सम्मानित करें, दण्डित या लज्जित न करें। विवेकी मानव समाज का यह श्रेष्ठ गुण स्वस्थ मानव संबंधों के विकास में सहयोगी होगा। अशुभाचार से निवृत्ति होगी। सुधीजन विचार करें। उक्त प्रकरण में आचार्य श्री विद्यासागर जी से चर्चा की तो उन्होंने कहा कि जैनधर्म में 18 दोषरहित देव को ही अष्टद्रव्य से पूज्य माना है। देवगति के देव और दोष-रहित (वीतरागी) देव पूज्यत्व की दृष्टि से एक समान नहीं है। पद्मावती आदि की पूजन अष्टद्रव्य से नहीं की जा सकती। सामाजिक एकता ही दृष्टि की यह अवश्य है कि जहाँ उनकी मूर्तियाँ पहले से ही विराजमान है, वहाँ विसंवाद नहीं किया जावे ओर न ही उनका अपमान किया जाये। - बी-369, ओ.पी.एम. कालोनी __ अमलाई पेपर मिल्स, जिला-शहडोल (म.प्र.)-484117

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