Book Title: Anekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 9
________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 क्यों न पूजें। जिनभक्ति की विशेषता सौधर्म इन्द्र को भी है, वह सम्यग्दृष्टि भी है, इसे छोड़कर इन्हें किसलिए पूजें। तीर्थकर के दार्शनिक भक्तिवान पुरुष ही करता है। तीर्थकर के दर्शनादिक में क्षेत्रपालादि बाधक नहीं जो उन्हें पूजें। जिनमत में रौद्र रूप पूज्य नहीं। तीव्र मिथ्यात्वभाव सो ही रौद्ररूप को पूजने का भाव होता है। पं. जी कहते है कि 'देखो मिथ्यात्व की महिमा। लोक में तो अपने से नीचे को नमन करने में अपने को निंद्य मानते हैं और मोहित होकर रोड़ों तक को पूजते हुए भी निंद्यपना नहीं मानते' (पृ.174)। क्षेत्रपालादिक को पूजने से दो हानियाँ हैं- मिथ्यात्वादि दृढ़ होने से मोक्षमार्ग दुर्लभ हो जाता है और दूसरे पापबंध होने से आगामी दु:ख पाते हैं। कुदेवादिक को मानने से इष्ट-अनिष्ट बुद्धि में वृद्धि होती है और पुण्यबंध के स्थान पर पापबंध होता है। भ्रमबुद्धि, जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान-ज्ञान का पूर्ण अभाव और राग-द्वेष की अति तीव्रता में ही कुदेवादिक की मान्यता होती है। (अध्याय 6, पृष्ठ-173-175)। (6) कुदेवादिक की पूजन से पापबंध एवं नि:कांक्षित गुण का अभाव अष्टम अध्याय में प्रथमानुयोग के उपदेश के स्वरूप पर चर्चा करते हुए पण्डितजी ने लिखा है 'कितने ही पुरुषों ने पुत्रादिक की प्राप्ति के अर्थ अथवा रोगकष्टादि दूर करने के अर्थ चैत्यालय पूजनादि कार्य किये, स्तोत्रादि किये, नमस्कार मंत्र स्मरण किया; परन्तु ऐसा करने से तो नि:कांक्षित गुण का अभाव होता है। निदानबंध नामक आर्तध्यान होता है, पाप ही का अयोजन अंतरंग है इसलिये पाप का बंध होता है; परन्तु मोहित होकर भी बहुत पापबंध का कारण कुदेवादिक तो पूजनादिक नहीं किया; इतना उसका गुणग्रहण करके उसकी प्रशंसा करते हैं। इस छल से औरों को लौकिक कार्यो के अर्थ धर्म करना युक्त नहीं हैं।' (अध्याय-8 पृ. 274)। (7) मन्दकषायी-तीव्र कषायी का भेद उद्धरण अष्टम अध्याय में चार अनुयोगों में उपदेश के स्वरूप का वर्णन है। करणानुयोग के व्याख्यान के विधान में अंतरंग कषाय शक्ति के अनुसार मंदकषायी और तीव्रकषायी का अन्तर दर्शाया है और उदाहरण में कहा है कि "व्यन्तरादिक देव कषायों से नगर नाशादि कार्य करते हैं, तथापि उनके थोड़ी कषाय शक्ति से पीत लेश्या कही है और एकेन्द्रियादिक जीव कषाय कार्य करते दिखाई नहीं देते, तथापि उनके बहुत कषाय शक्ति से कृष्णादि लेश्या कही है तथा सर्वार्थसिद्धि के देव कषाय रूप थोड़े प्रवर्तते हैं, उनके बहुत कषाय शक्ति से असंयम कहा है। पंचमगुण स्थानी व्यापार अब्रह्मादि कषाय कार्यरूप बहुत प्रवर्तते हैं, उनके मन्दकषाय शक्ति से देशसंयम कहा है।" (अध्याय-8, पं.276)। (8) तत्त्वों के यथार्थश्रद्धान से देव-कुदेव का विवेक जागरण अष्टम अध्याय के चरणानुयोग व्याख्यान विधान में 'निश्चय सहित व्यवहार के उपदेश' में यथार्थ तत्त्वों के श्रद्धान से सहजपरिणति वर्णन है, यथा- 'ऐसे श्रद्धान सहित व स्व-पर के भेदज्ञान द्वारा परद्रव्य में रागादि छोड़ने के प्रयोजन सहित उन तत्त्वों का श्रद्धान करने का

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