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ध्यान
(२) इस ध्यान के लिए चार लक्षण कर्ता में होते हैं। (१) जिन मार्ग में रुचि (आज्ञा रुची ) ( २ ) स्वाभाविक रुचि ( निमर्ग रुचि) (३) आगम में रुचि और ( सूत्र ) रुच) (४) आगमां क गहरे अध्ययन की रुनि ( अवगाढ़ रुचि ) ।
(३) इन ध्यान के लिए चार बालम्बन है। (१) अध्ययन ( वाचना ) (२) विचार विमर्श ( प्रतिपृच्छा), (३) बारंबार पठन ( परिद्व तना) और (४) गहरा चिंतन (अनुप्रेक्षा)
(४) इस ध्यान की चार अनुप्रेक्षागे हैं। (१) अनित्य (२) अशरण, (३) एकस्व और ( ४ ) मंग्वार |
शुक्ल ध्यान के भी चार भेद है२ - ( १ ) पृथवत्ववितर्क विचार, (२) एकम्ब-वितर्क अविचार, (३) सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति, (५) व्युपरत क्रिया निर्वात । इनमें से प्रथम दो १२ वे गुणस्थान तक होते हैं और अन्तिम दो केवल ज्ञानियों के होते हैं। जिस स्थान में पृथक्व ( नानापन) वितर्क (श्रुतज्ञान) और विचार (अर्थ, व्यंजन और योगों का संक्रमण) होते हैं वह प्रथम शुक्ल ध्यान है३ । जिस ध्यान में योगी खेद रहित होकर एक द्रव्य को, एक (२) सवार्थ, ६/३६ (३) सर्वार्थ, १ / ४४
काबड़ एक चलता फिरता मंदिर
महेन्द्र भाव
रंगरूपों की जितनी विशाल परतें हमें राजस्थान में देखने को मिलती हैं उतनी कहीं नहीं। सच तो यह है कि सदियों से साहित्य, संस्कृति, कला और सभ्यता की शतशः धारायें इसकी विशाल भित्ति को अभिसिंचित करती रही हैं। यही कारण है कि राजस्थान आज भी उतना ही रंगीन और रमलीन बना हुआ है। कला की अनुपम कृतियों के साथ धार्मिक अभिव्यक्ति के ऐसे कई उदाहरण हमें मिलते हैं जो आज भी लोकधर्म के प्रति अत्यन्त-विनीत एवं श्रद्धाभाव बनाये हुए हैं ।
कावड़िया भाटों की कावद एक इसी प्रकार की अन्य
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अणु को अथवा एक पर्याय को एक योग से चिन्तन करता है उसको एकस्व ध्यान कहते हैं। इसमें पृथक्त्व के स्थान पर एकत्व होता है, विचार के स्थान पर अविचार होता है और जितकं वर्तमान है। इस ध्यान से योगी चार घातिया कर्मों का नाश कर देता है और केवल ज्ञान का स्वामी हो जाता है। जब केवली की बायु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रद्द जाती है तब तीसरा शुक्लध्यान होता है । इसमें मन और वचन योग दोनों का निग्रह हो जाता है और केवल सूक्ष्मकाययोग उपस्थित रहता है। चौथे शुक्ल ध्यान में सूक्ष्म काययोग भी समाप्त हो जाता हैं योगी अब प्रयोग केवली होता है। इस ध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं? | भय का अभाव ( अन्यथा ), मोह का प्रभाव ( श्रममोह ) विवेक और व्युम्पर्ग | इस ध्यान के चार बालअयन है३ । क्षमा, निर्लोभता, सरलता और निरभिमानता । इस ध्यान की चार अनुप्रेक्षायें हैं ४ । दुःख के कारणों का विचर, संसार के अशुभ होने का चिंतन, जन्म मरण की अनन्तता का चितन और वस्तुओं के निरन्तर परिणमन का चितन ।
(१) सर्वार्थ० ६ / ३४ (२-४) नवपदार्थ पेज० ६७१
तम धरोहर है जो कला की अनुपम कृति के साथ-साथ धार्मिक अभिव्यक्ति की चरम है। राजस्थान में चित्तौड़ के पास बसी की काष्ठ कला अत्यन्त प्रसिद्ध रही है। यहां के खेरादियों ने काष्ठकला के कई रूपों को प्रश्रय देकर अपनी विशिष्ट परम्परा कायम की है। कावड मा उन्हीं की विशेष थाती है । बसी में जहां नाना प्रकार के खिलौने, बाजोट, तोरण, थंभ, बेत्राण, भूले, चौपड़े, पाये, गणगौर ईशर पुतलियां तथा कठपुतलियां आदि के बेजोड़ रूप हमें देखने को मिलते हैं वहां कभी-कभी धाम, अडमा, सेमला आदि को लकड़ी के बने छोटे-छोटे पाटों (कपाटी) पर नाना