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क्रांति और अहिंसा
क्रांति का अर्थ होता है अचानक हो जाने वाला एक व्यापक परिवर्तन । आज की परिस्थितियों में जिस परिवर्तन की संभावना नहीं लगती है, कल वही परिवर्तन जब हमारे सामने आ जाता है अथवा कल उस परिवर्तन के लिए जब व्यापक भूमिका तैयार हो जाती है, हम उसे क्रांति कहते हैं । देशव्यापी परिवर्तन के लिए माध्यम भी देशव्यापी होने जरूरी होते हैं। इस दृष्टि से हमारे सामने तीन रास्ते आते हैं--संविधान, हिंसा और अहिंसा। जयप्रकाश जी ने इन्हें कानून, कत्ल और करुणा भी कहा है। व्यक्ति के सामाजिक जीवन में आरम्भ से ही इन तीनों का कमोबेश स्थान रहा है।
संविधान का मुख्य उद्देश्य व्यवस्था को बनाए रखने का होता है। वैसे समाज के विकास का दायित्व भी इस पर होता है, किन्तु समाज के आमूलचूल परिवर्तन का वाहक यह नहीं होता । यह परिवर्तन तो होता भी तभी है जब लोग कानून से ऊपर उठकर सत्ता अपने हाथ में ले लेते हैं । संविधान किसी क्रांति के लिए नहीं होता किन्तु स्वीकृत व्यवस्था की सुचारुता के लिए होता है। इस स्थिति में उससे किसी क्रान्ति की अपेक्षा करना संगत नहीं होगा।
__अब प्रश्न हिंसा और अहिंसा का ही शेष रह जाता है। हिंसा और अहिंसा के माध्यमों में भी अहिंसा सदा प्राथमिक स्थान पर आरूढ़ रही है। जगत् में ऐसा एक भी प्राणी नहीं हो सकता जो हिंसा, रक्तपात और युद्ध के पक्ष में हो। जब उसका अभीप्सित अन्य साधनों से नहीं मिलता, तब वह हिंसा का सहारा लेता है । हिंसा में विश्वास रखने वाले साम्यवादी लोग भी यह स्वीकार करते हैं। यदि अहिंसा से क्रांति संभव हो तो इससे उत्तम रास्ता दूसरा कोई हो नहीं सकता। किन्तु दुर्भाग्यवश विश्व के इतिहास मे ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता, जब अहिंसा से कहीं क्रांति आई हो। यही कारण है, लोगों का झुकाव अहिंसा से हटकर हिंसा की ओर ही रहा।
अहिंसा किसी भी क्रांति या व्यापक परिवर्तन के लिए सर्वथा अक्षम है, इसे कभी स्वीकारा नहीं जा सकता। सचाई यह है कि हिंसा भी अहिंसा पर जाकर विश्राम लेती है। वह अन्त तक कभी निभ ही नहीं सकती। इसलिए अहिंसा से क्रांति की संभावना को संपूर्णत: समाप्त नहीं किया जा सकता। हमारे प्राचीन साहित्य में मिलता है
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