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अहिंसा : व्यक्ति और समाज
वाद इस तथ्य से हो सकता है कि संकल्पजा हिंसा सर्वथा अवांछनीय है और सर्वथा परिहार्य है |
आरम्भजा और विरोधजा हिंसा भी यदि आवश्यकता या अनिवार्यता पर आधारित नहीं होती है तो संकल्पजा हिंसा का रूप ले लेती है । इन संदर्भों में महारम्भ को वर्जित बताया गया है । महारंभ से उपरत रहने का तात्पर्य है, हिंसा का अल्पीकरण । हिंसा की अनिवार्यता को स्वीकृति मिलने पर भी हिंसा के अल्पीकरण की दिशा में गति यह प्रमाणित करती है कि जीवन का आधार हिंसा नहीं, अहिंसा, प्रेम और मंत्री है ।
अणुव्रत एक व्यावहारिक प्रयोग है । यह हिंसा के अल्पीकरण का सूत्र देता है । सामाजिक शांति, जीवन-विकास और अस्तित्व की स्थिरता के लिए यह सूत्र सर्वथा उपयुक्त है । हिंसा की उन्मुक्तता महाहिंसा की ओर प्रयाण है । ऐसे प्रयाण जहां भी हुए हैं, वहां सांस्कृतिक खतरे उपस्थित हुए हैं । प्राचीन संस्कृतियों के ह्रास और विलोप में असंतुलन का बहुत बड़ा हाथ है। असंतुलन को रोकने के लिए हिंसा की अल्पता के सिद्धान्त को मान्यता देनी होगी । यह सिद्धान्त केवल धार्मिक दृष्टि से ही मूल्यवान् नहीं है । यह सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य भी रखता है । इसलिए हिंसा की सघनता को तोड़ना अपेक्षित है ।
हिंसक शक्तियां केन्द्रित न हों, इस चिंतन से ही संस्कृति का विकास प्रारम्भ होता है। जहां हिंसा केन्द्रित हो जाती है, अन्तिम शिखर तक पहुंच जाती है, अन्तिम बिन्दु का स्पर्श कर लेती है, वहीं से संस्कृति के पतन का दौर शुरू हो जाता है । केन्द्रित हिंसा के स्वरूप तथा उसके परिणाम के आधार पर ही अणुव्रत ने उसके विरोध में हिंसा के अल्पीकरण का स्वर उठाया है । वह जीवन की अनिवार्य अपेक्षाओं की पूर्ति के साथ अवांछनीय तत्त्वों को भी समाप्त करता है ।
कुछ राजनीतिक पद्धतियां जीवन के स्तर पर नहीं, किन्तु विचारों के स्तर पर हिंसा की अनिवार्यता को स्वीकार करती हैं । कुछ धार्मिक मंच भी वैचारिक स्तर पर हिंसा को मान्यता देते हैं । इनके अनुसार अपना विचार और धर्म बलात् थोपा जा सकता है । यदि कोई उसे स्वीकार न करे तो उस व्यक्ति को निरस्त करना भी मान्य है ।
अणुव्रत की दृष्टि से स्वस्थ समाज रचना के लिए उक्त दोनों तथ्य अवांछनीय हैं । वैचारिक स्तर पर हिंसा की अनिवार्यता को स्वीकृति देने का अर्थ है मारकाट के सिलसिले को अनन्तता प्रदान करना । मेरे अभिमत से धार्मिक और वैचारिक स्वतन्त्रता स्वाभाविक है । स्वतंत्र विचारों की परिधि में भिन्नता भी स्वाभाविक है । भिन्न परिवेश सकती है, पर थोपने की बात सम्यग् रूप से घटित
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में अपनी बात समझाई जा
नहीं हो सकती । इसमें
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