Book Title: Ahimsa Vyakti aur Samaj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 217
________________ संग्रह की परिणति : संघर्ष एकता और सहअस्तित्व----ये दोनों मनुष्य जाति के स्वाभाविक गुण हैं, किन्तु परिस्थिति और वातावरण की भिन्नता में इनकी विस्मृति हो जाती है । यह विस्मृति अस्वाभाविक नहीं है, क्योंकि परिस्थितियां और संदर्भ स्वभाव पर भी आवरण डाल देते हैं। मनुष्य सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक संदर्भो में जीता है, उनके परिपावं में होने वाली प्रवृत्तियां स्वाभाविक गुणों पर हावी हो जाती हैं, मनुष्य किसी भी परिस्थिति में रहे, मानवीय एकता और सहअस्तित्व उसके लिए मौलिक तथ्य हैं। वर्तमान परिस्थिति में और काल के हर चरण में इनकी स्मृति कराना धर्म या अध्यात्म का काम है । इस स्मृति की उपयोगिता हर युग में है । चाहे वह युग शान्ति का हो या युद्ध का। युद्ध की परिस्थितियों में वह और अधिक आवश्यक है । अणुव्रत अपने दायित्व के प्रति जागरूक है । वह मानवीय एकता और सहअस्तित्व के मूल्यों की विस्मृति दोनों के लिए प्रयत्नशील है; क्योंकि यह विस्मृति विश्व-शांति में बहुत बड़ी बाधा है। स्वभाव की विस्मृति ही द्वन्द्व का मुख्य कारण ___ मनुष्य जीवन या जीवन की उच्चता के लिए संग्रह करता है । जहां संग्रह है वहां द्वैत है। जहां द्वैत है, वहां संघर्ष है । संग्रह मनुष्य की एकता को खण्डित करता है और सहअस्तित्व में भी दरार डालता है । संघर्ष संग्रह की अनिवार्य परिणति है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि संग्रह हो और संघर्ष न हो। नमि राजा दाह-ज्वर से पीड़ित थे। राज्य के सर्वोच्च वैद्यों ने उपचार किया पर राजा की पीड़ा कम नहीं हुई। दाह-ज्वर का प्रभाव क्षीण करने के लिए चन्दन का लेप करने का सुझाव दिया गया। रानियां चन्दन घिसने लगीं। उनके हाथों में चूड़ियां खनखना उठीं । चूड़ियों की खनखनाहट राजा के लिए असह्य हो गयी। रानियों को स्थिति की अवगति मिली। उन्होंने अपने हाथों में एक-एक चूड़ी छोड़कर बाकी सब चूड़ियां उतार दी। खनखनाहट बन्द हो गयी। राजा ने पूछा-'चन्दन घिसना बन्द कर दिया है क्या ?' परिचारकों ने बताया, 'राजन् ! चन्दन अब भी घिसा जा रहा है।' 'चूड़ियों के शब्द कहां खो गये ?' राजा ने पूछा । राजा के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए परिचारक बोले-राजन् ! जिन चूड़ियों ने आपकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238