Book Title: Ahimsa Vyakti aur Samaj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 216
________________ व्यवसाय - तन्त्र और सत्य - साधना २०५ एक अन्य प्रसंग में उन्होंने बताया - 'प्लास्टिक चूर्ण का एक बड़ा कोटा मुझे एक अन्य व्यवसायी के साथ मिला हुआ था। ब्लैक की दर से लगभग तीन लाख रुपये का लाभ मेरे हिस्से में आता था, पर ब्लैक करना मुझे मान्य नहीं था, अत: उस व्यवसाय से ही मैंने अपना सम्बन्ध तोड़ लिया । चोरबाजारी न करने के लिए और भी अनेक प्रकार के धन्धे मुझे छोड़ देने पड़े ।' एक अन्य भाई ने अपना जीवन-प्रसंग सुनाते हुए कहा - 'कलकत्ता में हमारा औषधि निर्माण का व्यवसाय है । एक बार दस हजार रुपयों का पीपरमेंट हमारे यहां खरीदा गया । देने वाले ने शोरा मिलाया हुआ पीपरमेंट हमें दे दिया, वह किसी भी उपयोग का नहीं था । चाहते तो हम भी उसे किसी प्रकार पार कर सकते थे किन्तु अणुव्रती होने के नाते हमने ऐसा नहीं किया और दस हजार का सारा माल गंगा में बहा दिया ।' ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिसमें अणुव्रती भाइयों ने स्वार्थ और सुविधावाद से ऊपर उठकर अणुव्रत के आदर्शों को उजागर किया है। कुछ भाइयों को अपने आदर्शों और व्यवहारों में समन्वय स्थापित करने के लिए अनेक कठिनाtri झेलनी पड़ी हैं। कठिनाइयों के बावजूद उन्हें आत्मतोष मिला और नैतिक जीवन के प्रति उनकी आस्था प्रबल हुई । इसलिए मेरा यह अभिमत है कि मनुष्य किसी भी स्थिति में प्रामाणिकता रख सकता है, यदि प्रामाणिकता की सुखद निष्पत्तियों में उसकी दृढ आस्था है और प्रयोग कला में समागत कठिनाइयों से जूझने की क्षमता है । साधना की लम्बी प्रक्रिया से मनुष्य सहज प्रामाणिकता का जीवन जी सकता है, पर यह प्रक्रिया कितनी व्यापक बनती है और उसका प्रभाव तात्कालिक होता है या दूरगामी ? - ये प्रश्नचिह्न अभी तक भविष्य के गर्भ में सन्निहित हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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