Book Title: Ahimsa Vyakti aur Samaj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 227
________________ २१६ अहिंसा : व्यक्ति और समाज अधिकांश लोग अपनी तीव्र आवश्यकताओं (अनिवार्यताओं) की संतुष्टि कर पाते हैं। मध्यम आवश्यकताओं (सुविधाओं) की संतुष्टि अपेक्षाकृत कम लोग कर पाते हैं । मन्द आवश्यकताओं (विलासिताओं) की संतुष्टि कुछ ही लोग कर पाते हैं । इस क्रम के साथ महावीर के दृष्टिकोण-'लाभ से लोभ बढ़ता हैं'-का अध्ययन करने पर यह फलित होता है कि आवश्यकताओं की वृद्धि के क्रम में कुछ आवश्यकताओ की संतुष्टि की जा सकती है, किन्तु उनकी वृद्धि के साथ उभरने वाले मानसिक असंतोष और अशान्ति की चिकित्सा नहीं की जा सकती। अर्थशास्त्र द्वारा प्रस्तुत मानव के भौतिक कल्याण की वेदी पर मानव की मानसिक शान्ति की आहुति नहीं दी जा सकती । इसलिए भौतिक कल्याण और आध्यात्मिक कल्याण के मध्य सामंजस्य स्थापित करना अनिवार्य है । यदि मनुष्य-समाज को मानसिक तनाव, पागलपन, क्रूरता, शोषण, आक्रमण और उच्छृखल प्रवृत्तियों से बचना इष्ट है तो यह अनिवार्यता और अधिक तीव्र हो जाती है। इसी अनिवार्यता की अनुभूति करके ही महावीर ने समाज के सामने 'इच्छा-परिमाण' का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इस आदर्श में अनिवार्यताओं और सुविधाओं को छोड़ने की शर्त नहीं है और विलासितापूर्ण आवश्यकताओं की परम्परा को चालू रखने की स्वीकृति भी नहीं है। 'इच्छा-परिमाण' के सिद्धांत में अर्थशास्त्रीय आवश्यकता-वृद्धि के सिद्धांत से मौलिक भिन्नता दो विषयों की है। पहली भिन्नता यह हैअर्थशास्त्र विलासिताओं के उपभोग का समर्थन करता है । उसके समर्थन में निम्न तर्क प्रस्तुत किए जाते हैं १. विलासिताओं के उपभोग से सामाजिक तथा आर्थिक उन्नति होती २. कर्मशीलता को प्रोत्साहन मिलता है। ३. जीवन-स्तर ऊंचा होता है। ४. धन-संग्रह होता है । संकट के समय वह (आभूषण आदि) सहायक सिद्ध होता है। ५. कला-कौशल, कारीगरी तथा उद्योग-धंधों को प्रोत्साहन मिलता सव अर्थशास्त्री इन विलासिताओं के उपभोग के सिद्धांत का समर्थन नहीं करते । उनका दृष्टिकोण यह है कि विलासिताओं के उपयोग से १. वर्ग-विषमता (class inequality) बढ़ती है । २. उत्पादन-कार्यों के लिए पूंजी की कमी हो जाती है। ३. निर्धन वर्ग पर प्रतिकूल प्रभाव होता है, द्वेष तथा घृणा की वृद्धि होती है। विलासिता के प्रति यह दृष्टिकोण धर्म के दृष्टिकोण से भिन्न नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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