Book Title: Ahimsa Vyakti aur Samaj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 232
________________ अपरिग्रही चेतना का विकास २२१ भी उनकी ओर पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक भोगों को त्याग करता त्यागी ही ब्रह्मचारी होता है और त्यागी ही अपरिग्रही । सत्य यह है कि मूर्छा भंग होने पर चेतना जागृत हो जाती है। वह सर्वात्मना प्रकाशित हो जाती है। फिर उसके खण्ड नहीं किए जा सकते। चेतना का एक कोना जागृत और एक सुप्त--यह विभाजन नहीं किया जा सकता। उसमें हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह इनमें से एक भी नहीं टिक पाता। आचार्य भिक्षु ने इस विषय में बहुत सुन्दर लिखा है कि एक महाव्रत को नहीं साधा जा सकता । एक होता है तो पांचों होते हैं और एक टूटता है तो पांचों टूट जाते हैं। इसका हेतु चेतना में अनासक्ति की अखंडता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 230 231 232 233 234 235 236 237 238