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अपरिग्रही चेतना का विकास
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भी उनकी ओर पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक भोगों को त्याग करता
त्यागी ही ब्रह्मचारी होता है और त्यागी ही अपरिग्रही । सत्य यह है कि मूर्छा भंग होने पर चेतना जागृत हो जाती है। वह सर्वात्मना प्रकाशित हो जाती है। फिर उसके खण्ड नहीं किए जा सकते। चेतना का एक कोना जागृत और एक सुप्त--यह विभाजन नहीं किया जा सकता। उसमें हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह इनमें से एक भी नहीं टिक पाता। आचार्य भिक्षु ने इस विषय में बहुत सुन्दर लिखा है कि एक महाव्रत को नहीं साधा जा सकता । एक होता है तो पांचों होते हैं और एक टूटता है तो पांचों टूट जाते हैं। इसका हेतु चेतना में अनासक्ति की अखंडता है।
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