Book Title: Ahimsa Vyakti aur Samaj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 231
________________ अपरिग्रही चेतना का विकास जहां देह है वहां वस्तु का उपभोग होता ही है। देह छूटता नहीं है और वस्तु का उपभोग किए बिना वह रहता नहीं है इसलिए वस्तु का उपभोग अनिवार्य हो जाता है। यदि वस्तु और उसका उपभोग ही परिग्रह हो तो कोई अपरिग्रही हो ही नहीं सकता । दूसरी बात यह है कि केवल वस्तु पास में न होने या न रखने मात्र से कोई अपरिग्रहो नहीं होता। अपरिग्रही वह होता है जिसमें अपरिग्रह की चेतना विकसित हो जाती है। अपरिग्रह की चेतना का विकास एकत्व की भावना उदित होने पर होता है। जो व्यक्ति वस्तुओं के संयोग और वियोग के सिद्धांत को जानता है, वह जानता है कि आत्मा अकेली है, उसके अधिकार में जितने पदार्थ हैं वे सब संयुक्त हैं, एकत्र किए हुए हैं, संगृहीत हैं, उससे भिन्न हैं और निश्चित रूप से एक दिन वियुक्त हो जाने वाले हैं। 'संयोगा विप्रयोगांता:'-संयोग की अन्तिम परिणति वियोग है । यह ध्रुव सत्य है। इस एकत्व भावना से ममकार का विसर्जन और अपरिग्रह की चेतना फलित होती है। एक भिखारी के पास कुछ भी नहीं है और एक चक्रवर्ती के पास बहुत कुछ है । भगवान महावीर से पूछा गया-"भंते ! क्या वह भिखारी अपरिग्रही है और क्या वह चक्रवर्ती बहुपरिग्रही है ?" भगवान् ने कहा"आकांक्षा की दृष्टि से भिखारी और चक्रवर्ती दोनों परिग्रही है । भिखारी के पास वस्तुएं नहीं हैं पर उन्हें पाने की आकांक्षा चक्रवर्ती से कम नहीं है। अपरिग्रही वह होता है जिसकी आकांक्षा विसर्जित हो जाती है । भगवान् ने उस व्यक्ति को त्यागी नहीं कहा जो विवशता में भोग का उपभोग नहीं कर पा रहा हो वत्थगन्धमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य । अच्छन्दा जे न भुंजन्ति न से चाइत्ति वुच्चइ ।। -जो वस्त्र, गन्ध, अलंकार, स्त्रियां और पलंगों का परवश होने से (या उनके अभाव में) सेवन नहीं करता वह त्यागी नहीं कहलाता । जिस व्यक्ति में त्याग की चेतना निर्मित हो जाती है, वही सही अर्थ में त्यागी होता है जे य कन्ते पिए भोए लद्धे विपिटिकुव्वइ । साहीणे चयइ भोए से हु चाइत्ति वुच्चइ ॥ -त्यागी वह कहलाता है जो कांत और प्रियभोग उपलब्ध होने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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