Book Title: Ahimsa Vyakti aur Samaj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 229
________________ २१८ अहिंसा : व्यक्ति और समाज कार्य-कुशलता का निर्धारण करने वाले तत्वों के रूप में स्वीकार करने वाले अर्थशास्त्री नैतिकता की सर्वथा उपेक्षा नहीं कर सकते । अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र- ये दोनों समाजशास्त्र के ही अंग हैं। इन दोनों में मानवीय व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। अर्थशास्त्र में मानवीय व्यवहार के आर्थिक पहलू का और नीतिशास्त्र में उसके आदर्शात्मक पहलू का अध्ययन किया जाता है। नीतिशास्त्र आदर्श प्रस्तुत करता है। वह हमें बताता है कि हमारा आचरण कैसा होना चाहिए। नीतिशास्त्र उचित और अनुचित में भेद कर. का आदेश देता है और हमें बताता है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। अर्थशास्त्री आर्थिक निर्णय सुनाते तथा व्यवस्था देते समय नीतिशास्त्र के निर्देश की उपेक्षा नहीं कर समते । उदाहरणार्थ डॉ० मार्शल ने सदाचार के आधार पर अपनी 'उत्पादक श्रम' की धारणा से वेश्यावृत्ति को बाहर निकाल दिया। जैसा कि प्रो० सैलिगमैन (Saligman) ने कहा है-'सच्ची आर्थिक क्रिया परिणामत: सदाचारिक होनी चाहिए।' इस प्रकार अर्थशास्त्री आर्थिक नीति के निर्माण में नीतिशास्त्र की उपेक्षा नहीं कर सकता। इसी प्रकार अर्थशास्त्र का नीतिशास्त्र पर भी बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। आर्थिक परिस्थितियां मनुष्य के चरित्र तथा आचार-विचार पर गहरा प्रभाव डालती हैं । अमुक व्यक्ति का आचार कैसा होगा, इस बात से निश्चित होता है कि वह अपनी आजीविका कैसे कमाता है। इस प्रकार अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। महावीर ने कहा- 'इच्छा का परिमाण नहीं करने वाला मनुष्य अधर्म से आजीविका कमाता है और इच्छा का परिमाण करने वाला मनुष्य धर्म से आजीविका कमाता है। अधर्म या धर्म से आजीविका कमाने में आर्थिक परिस्थितियां निमित्त बनती हैं किन्तु उनका उत्पादन कारण अनासक्ति तथा धर्मश्रद्धा का तारतम्य है।' 'इच्छा-परिमाण' के निष्कर्ष संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किए जा सकते हैं १.न गरीब और न विलासिता का जीवन । २. धन आवश्यकता पूर्ति का साधन है, साध्य नहीं। धन मनुष्य के लिए है, मनुष्य धन के लिए नहीं है। ३. आवश्यकता की सन्तुष्टि के लिए धन का अर्जन किन्तु दूसरों को हानि पहुंचाकर अपनी आवश्यकताओं की संतुष्टि न हो, इसका जागरूक प्रयत्न । - १. एम० एल० सेठ : आधुनिक अर्थशास्त्र, पृ० ३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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