Book Title: Ahimsa Vyakti aur Samaj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 225
________________ २१४ अहिंसा : व्यक्ति और समाज धर्म-गुरु सामाजिक व्यक्ति को धर्म में दीक्षित करता है, इसलिए वह ज्रसकी आर्थिक अपेक्षाओं की सर्वथा उपेक्षा कर उसके लिए अपरिग्रह के नियमों की संरचना नहीं कर सकता । इस आधार पर 'इच्छा-परिमाण' व्रत के परिपार्श्व में महावीर ने इन नैतिक नियमों का निर्देश दिया १. झूठा तोल-माप न करना। २. मिलावट न करना। ३. असलो वस्तु दिखाकर नकली वस्तु न बेचना। समाज के संदर्भ में इच्छा-परिमाण के नियामक तत्त्व दो हैंप्रामाणिकता और करुणा । व्यक्ति के संदर्भ में उसका नियामक तत्त्व है-- संयम । झूठा तोल-माप आदि न करने के पीछे प्रामाणिकता और करुणा की प्रेरणा है । व्यक्तिगत उपभोग कम करने के पीछे संयम की प्रेरणा है। महावीर के व्रती श्रावक अर्थार्जन में अप्रामाणिक साधनों का प्रयोग नहीं करते थे और व्यक्तिगत जीवन की सीमा रखते थे। धन के अर्जन में प्रामाणिक साधनों का उपयोग न करना, संग्रह की निश्चित सीमा करना और व्यक्तिगत उपभोग का संयम करना-ये तीनों मिलकर 'इच्छा-परिमाण' व्रत का निर्माण करते हैं। यह आर्थिक विपन्नता का व्रत नहीं है। धर्म और गरीबी में कोई सम्बन्ध नहीं है । गरीब आदमी ही धार्मिक हो सकता है या धार्मिक को गरीब होना चाहिए-यह चिन्तन महावीर की दृष्टि में त्रुटिपूर्ण है। धर्म की आराधना न गरीब कर सकता है और न अमीर कर सकता है। जिसके मन में शान्ति की भावना जागृत हो जाती है वह धर्म की आराधना कर सकता है, फिर चाहे वह गरीब हो या अमीर । धार्मिक व्यक्ति गरीबी और अमीरी -दोनों से दूर होकर त्यागी होता है । हमने धर्म को एक जाति का रूप दे दिया। हमारे युग के धार्मिक जन्मना धार्मिक हैं । जो व्यक्ति जिस परम्परा में जन्म लेता है, उस वंश-परम्परा का धर्म उसका धर्म हो जाता है । जन्मना धार्मिक के लिए इच्छा-परिमाण का व्रत अर्थवान् नहीं है । यह उन लोगों के लिए अर्थवान् है जो कर्मणा धार्मिक होते हैं। ऐसे धार्मिक साधु-संन्यासियों जितने विरल नहीं, फिर भी जनसंख्या की अपेक्षा विरल ही होते हैं। इसलिए उनके आधार पर न तो आर्थिक मान्यताएं स्थापित होती हैं और न वे आर्थिक प्रगति में अवरोध बनते हैं। अधिकांश धार्मिक जन्मना धर्म के अनुयायी होते हैं। वे आवश्यकताओं की कमी, अर्थ-संग्रह की कमी, विलासिता के संयम और नैतिक नियमों में विश्वास नहीं करते। उनका धर्म नैतिकता-शून्य धर्म होता है । वे धार्मिक होने के साथ-साथ नैतिक होना आवश्यक नहीं मानते । वे धर्म के प्रति रुचि प्रदर्शित करते हैं, पर उनका आचरण नहीं करते । ऐसे धार्मिकों का धर्म आर्थिक प्रगति को प्रभावित नहीं करता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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