Book Title: Ahimsa Vyakti aur Samaj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 214
________________ व्यवसाय-तन्त्र और सत्य-साधना सत्य-साधना के मार्ग में कठिनाइयां निश्चित हैं क्योंकि हर व्यक्ति वातावरण और परिस्थितियों से प्रभावित है । वातावरण स्वस्थ होता है, परिस्थितियां अनुकूल होती हैं और व्यक्ति का मन समाहित होता है, वहां सत्य की साधना जीवन का स्वाभाविक क्रम बन जाती है। वातावरण और परिस्थिति को छोड़कर व्यक्ति के आचार-व्यवहार की कोई व्याख्या नहीं हो सकती । व्यवसाय-तन्त्र की अनैतिकता से मानवीय संस्कार अप्रभावित नहीं है, इसमें काफी हद तक सचाई है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है कि व्यक्ति की मनःस्थिति बाह्य परिस्थितियों के आधार पर बदलती रहती है। मनुष्य के जीवन में लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, सम्मान-अपमान आदि ऐसे द्वन्द्व हैं, जो उसको प्रताड़ित करते रहते हैं और सामान्यत: इनके आधार पर ही उसका आचरण होता है। वैयक्तिक कठिनाइयों का संत्रास मनुष्य की व्यथा का हेतु है ही, व्यापार-क्षेत्र में सामूहिक कठिनाइयां भी हैं। अर्थ व्यक्ति के बड़प्पन का मानदण्ड बन रहा है इसीलिए सामान्य व्यक्ति जैसे-तैसे अर्थ का उत्पादन और संग्रह करने में लग जाता है। व्यवसाय-तन्त्र में परिव्याप्त अनैतिकता अर्थ को अनावश्यक महत्त्व मिलने का परिणाम है। जब तक समाज में अर्थ का अतिरिक्त मूल्य है, व्यवसाय तन्त्र में अनैतिकता का प्रश्न अस्वाभाविक नहीं है किन्तु धर्म की दिशा इसे सर्वथा स्वीकार नहीं करेगी। इसके अनुसार व्यक्ति परिस्थिति और द्वन्द्वों पर विजय प्राप्त कर सकता है। जन-प्रवाह से विपरीत दिशा में गति करने के लिए ही धर्म का स्वतंत्र अस्तित्व है । यह व्रत नैतिकता या धर्म की भूमिका पर ही फलित हो सकता है। मनुष्य सत्य की साधना अपने लिए करे। जिस व्यक्ति को इसमें अपने हित का आभास हो जाता है वह किसी भी स्थिति में व्यवसाय-तन्त्र की अनैतिकता से प्रभावित नहीं होता। प्रश्न नैतिकता और अनैतिकता का नहीं, मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं का है । यदि मनुष्य की अपेक्षाएं अनैतिक बने बिना ही पूरी होती हों तो वह अनैतिक क्यों बने ? उसकी प्रवृत्ति आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होती है। समाज ऐसी व्यवस्थाओं का निर्माण कर सके, जिनमें मनुष्य नैतिक रहता हुआ अपनी अपेक्षाएं पूरी कर लेता हो तो अनैतिकता के लिए कोई अवसर ही नहीं आएगा। सचमुच व्यवस्था का योग होने पर भी मनुष्य अपनी बढ़ती हुई आकांक्षा की प्रेरणा से अनैतिक बनता है। इसका समाधान धर्म के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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