Book Title: Ahimsa Vyakti aur Samaj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 206
________________ अर्थ-व्यवस्था के सूत्र यदि हम यथार्थ में सोचते हैं तो यह स्पष्ट प्रतीत होता हैं कि आज के मनुष्य का दृष्किोण एकमात्र आर्थिक बन गया है । वह प्रत्येक बात आर्थिक लाभ-अलाभ की दृष्टि से सोचता है। इसके सिवाय चिन्तन का कोई कोण ही नहीं रहा, ऐसा लगता है। एक व्यापारी मर गया। उसे धर्मराज के सामने उपस्थित किया गया। धर्मराज ने पूछा-कहां जाना चाहते हो, नरक में या स्वर्ग में ? वह बोला"भगवान् ! जहां दो पैसे की कमाई हो, वहीं भेज दें। मेरे लिए स्वर्ग-नरक का कोई फर्क नहीं है।" आज प्रत्येक व्यक्ति व्यापारी है। उसका दिमाग व्यावसायिक है, फिर चाहे वह राजनीतिक क्षेत्र में हो, सामाजिक क्षेत्र में हो या धार्मिक क्षेत्र में हो । किसको व्यापारी कहें और किसको न कहें ? लगता हैं संसार का प्रत्येक वर्ग व्यापारी है, आर्थिक दृष्टिकोण से सोचने वाला है। शक्य है लेकिन करणीय है क्या ? __ आज की व्यवस्था के दो महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं। एक सूत्र है-~जो शक्य है वह काम कर लेना चाहिए । अणुबम बनाना शक्य है तो वह भी बना लेना चाहिये । इस प्रकार शक्यता के साथ करणीयता को जोड़कर आदमी ने इतनी लम्बी छलांग भर ली है कि वह अणु-शस्त्रों तक पहुंच गया। यदि यह मर्यादा होती कि शक्य तो है, पर वह करणीय भी है क्या ? शक्यता का परिणाम क्या होगा? तो एक नियन्त्रण आता। पर वर्तमान अर्थशास्त्र का सिद्धांत यह बन गया है कि जो शक्य है वह करणीय भी है । इससे सीमा का अतिक्रमण हो गया । शक्यता के साथ संयम की सीमा होनी चाहिए। शक्य कार्य करणीय होता है, पर उसके साथ यह अंकुश हो कि वह शक्य कार्य किया जाय जिससे दूसरे का कोई अनिष्ट न हो। यह बड़ा अंकुश है । शक्य तो बहुत कुछ हो सकता है । पास में कंकड़ पड़े हैं। घड़े भी पड़े हैं। कंकड़ फेंका और घड़े को फोड़ डाला । यह शक्य है, पर करणीय नहीं है । सारे शक्य कार्य करणीय नहीं होते । शक्य होना एक बात है और करणीय होना दूसरी बात है । शक्य होने पर भी वही काम करणीय है जिसका परिणाम अच्छा होता है, जिससे दूसरे का अनिष्ट न हो । जहां शक्य और करणीय का विवेक नहीं होता, वहां अनर्थ घटित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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