Book Title: Ahimsa Vyakti aur Samaj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 195
________________ १८४ अहिंसा : व्यक्ति और समाज है, वहां प्राणवत्ता नहीं आ सकती। चैतन्य-स्पर्श में अन्तस् के स्पर्श किये बिना वह शक्ति स्फुरित नहीं हो पाती, जिसका आलोक बाहर और भीतर दोनों को प्रकाशित कर सके । दहलीज पर रखा हुआ दीपक कक्ष के भीतरी भाग और बाहरी भाग दोनों को आलोकित कर देता है। इसी प्रकार अन्तश्चेतना से सम्बद्ध समाज-व्यवस्था ही दोनों दिशाओं में हित-साधन के लिए सक्षम हो सकती है। परिग्रह की अल्पता का सूत्र अन्तश्चेतना के स्पर्श से अभिव्यक्ति पाता है। अत: वह समाज-चेतना के लिए भी हितकर है । जो व्यक्ति मानवीय मूल्यों में विश्वास रखता है, वह अधिक संग्रह नहीं रख सकता। मानवीय मूल्यों में करुणा और समत्व, इन दोनों दृष्टियों से अल्पपरिग्रह का मूल्य आंका जा सकता है । जो व्यक्ति क्रूर नहीं होगा अर्थात् जो करुणाशील होगा, वह संग्रहचेतना के केन्द्र में विस्फोट करने में सक्षम है । जिस व्यक्ति का समत्व विकसित है वह संग्रह-चेतना की एक-एक परत खोलकर असंग्रह की ओर गति कर सकता है। उक्त तथ्यों को इस प्रकार भी अभिव्यक्त किया जा सकता हैजीवन वृक्ष के तीन अमूल्य फल हैं-मानवीय दृष्टिकोण, करुणा और समत्व । ये तीनों फल जिस व्यक्ति को उपलब्ध हैं, वह अल्पपरिग्रह का प्रयोग कर सकता है। वर्तमान अर्थशास्त्र का सिद्धांत है व्यक्ति निकम्मा न रहे। वह कुछ-न कुछ करता रहे, ताकि उसकी क्षमताओं में जंग न लगे। जिस व्यक्ति की व्यावसायिक क्षमता विकसित है, वह उसका उपयोग न करे, यह समाज के हित में भी नहीं है। इस दृष्टि से अणुव्रत एक व्यावहारिक सिद्धान्त की प्रस्थापना कर आगे बढ़ रहा है । वह यह नहीं कहता कि व्यक्ति व्यवसाय न करे, अपनी क्षमता का उपयोग न करे । किन्तु वह यह चिंतन देता है कि अजित संपत्ति पर अपना स्वामित्व स्थापित न करे। जो प्राप्त है, उसे एक सीमा के बाद अपने अधिकार में न रखे, उसका विसर्जन करे । अशुद्ध पद्धतियों से अर्जन न हो और अतिरिक्त का विसर्जन हो, यह उभयत : पाश-दोनों ओर से नियमन है। इससे अर्जन में शुद्धता का प्रवेश होगा और जो अतिरिक्त संग्रह समाज की पीड़ा बना हुआ है, वह विसर्जन के माध्यम से बहकर लाघव की अनुभूति देता रहेगा। अणुव्रत परिग्रह के अल्पीकरण के सिद्धान्त को दृढ़ विश्वास के साथ जन-जन तक पहुंचाना चाहता है। इससे आत्महित सधेगा और साथ-साथ समाजवादी व्यवस्था को भी बल मिलेगा। समाजवादी व्यवस्था को बल देना दूसरी बात है, पहली बात है आत्महित के परिप्रेक्ष्य में इसका आध्यात्मिक मूल्यांकन । जिस समाज-व्यवस्था में आत्म-शान्ति, वैयक्तिक स्वतंत्रता और सम्पन्नता को संयुक्त मूल्य देने की परिकल्पना है, वहां अल्पपरिग्रह के सिद्धांत को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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