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युद्ध
की संस्कृति कैसे पनपती है ?
हिंसा और अहिंसा का द्वंद्व नया नहीं है । हिंसा का इतिहास जितना पुराना है, अहिंसा का इतिहास उससे कम प्राचीन नहीं है । एक ही व्यक्ति में हिंसा और अहिंसा - दोनों के संस्कार होते हैं । हिंसा के संस्कार प्रबल होते हैं तब अहिंसा का तेज मंद हो जाता है । अहिंसा के संस्कार सक्रिय रहते हैं तब हिंसा मौन हो जाती है। हिंसा के उपादान व्यक्ति के भीतर हैं, उसी प्रकार अहिंसा के उपादान भी भीतर हैं । जिस समय हिंसा के उपादान को प्रबल निमित्त मिलता है, व्यक्ति हिंसक हो उठता है । जिस समय अहिंसा का स्रोत गतिशील रहता है, व्यक्ति समभाव में रमण करने लगता है । कोई भी व्यक्ति हिंसक या अहिंसक क्यों बनता है ? इस तथ्य को उजागर करने के लिए उसकी मनोवृत्तियों का विश्लेषण करना आवश्यक है अथवा उसके मस्तिष्क में रहे हिंसा और अहिंसा के स्रोतों को समझना जरूरी है ।
हिंसा जीवन की अनिवार्यता है तो अहिंसा पवित्र जीवन की अनिवार्यता है । पवित्र जीवन की आकक्षांत रखने वाला व्यक्ति कभी भी हिंसा की परिक्रमा नहीं कर सकता । जीवन चलाने के लिए अपरिहार्य हिंसा से वह बच नहीं सकता पर उसका आदर्श अहिंसा है । वह अहिंसा - प्रधान जीवन शैली में आस्था रखता है और अपनी आस्था को आचरण में प्रतिबिम्बत करने के लिए प्रयास करता रहता है । प्रयास के प्रथम आचरण में वह संकल्पजा हिंसा छोड़ता है, दूसरे चरण में विरोधजा हिंसा से दूर होता है और तीसरे चरण में आरम्भजा हिंसा से भी मुक्त हो जाता है ।
हिंसा भी स्पृहणीय प्रतिबद्ध होता है, वह परिवार, समाज और
अहिंसा की दृष्टि से आरंभजा और विरोधजा नहीं हैं। पर जो व्यक्ति परिवार, समाज और राष्ट्र से हिंसा से सर्वथा विरत नहीं हो सकता । जिसके मन में राष्ट्र की मूर्छा है, जो इनके लिए परिग्रह का अर्जन और संग्रह करता है, वह अनायास ही हिंसा से जुड़ जाता है । परिग्रह और हिंसा एक ही समस्या के दो छोर हैं । एक छोर जब तक नहीं छूटता है, तब तक दूसरे छोर से छूटने का प्रयास भी सफल नहीं हो पाता । हिंसा से सर्वथा मुक्त होने के लिए परिग्रह की चेतना को समाप्त करना होगा । परिग्रह से प्रतिबद्ध जीवन जीने वाला व्यक्ति भी संकल्पजा हिंसा से बचता रहे तो अनेक उलझनों को टाला जा सकता है ।
हिंसा का उद्भव असहिष्णुता से होता है । यह मानसिक, वाचिक
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