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युद्ध और अहिंसक प्रतिकार
१२६ व्रत लेते थे, पर प्रत्याक्रमण का अधिकार नहीं छोड़ते थे। महाराज चेटक किसी पर आक्रमण नहीं करते थे और आक्रान्ता पर भी एक बार से अधिक प्रहार नहीं करते थे। यह अहिंसक प्रतिकार तो नहीं, किन्तु उस दिशा में एक बहुत साहसी चरण था।
___अहिंसक प्रतिकार की विशेष चर्चा महात्मा गांधी से प्रारम्भ होती है। आज का अहिंसावादी यह सोचता है कि अहिंसा में केवल निषेधात्मक ही नहीं, प्रतिकारात्मक शक्ति भी होनी चाहिए। उसके बिना अहिंसा तेजस्वी नहीं बनती। यह प्रतिकार बाहरी साधनों से नहीं हो सकता । यह आत्मबल के विकास पर ही निर्भर है। युद्ध दोनों पक्षों में
मनुष्य को युद्ध, शस्त्र-बल या पाशविक-शक्ति में विश्वास न हो तो वह युद्ध की अन्त्येष्टि कर सकता है । युद्ध एक पक्ष से नहीं हो सकता, दोनों पक्ष लड़ते हैं, तब वह होता है। एक लड़े और दूसरा न लड़े, तब आक्रमण हो सकता है, युद्ध नहीं। प्रत्याक्रमण न होने पर आक्रमण अपने-आप शिथिल हो जाता है । जैसे झूठी अफवाहों से आक्रान्ता को बल मिलता है वैसे ही प्रत्याक्रमण से भी उसे बल और वेग मिलता है। राक्षस से लड़ो, तुम्हारी शक्ति उसमें संक्रान्त हो जायेगी, उसकी शक्ति दूनी हो जायेगी। उससे मत लड़ो, उसकी शक्ति क्षीण हो जायेगी। प्रत्येक आवेग की यही स्थिति है। युद्ध एक आवेग है। वह एक-पक्षीय होकर प्रबल नहीं हो सकता। वह प्रबल तभी बनता है, जब आवेग के प्रति आवेग आता है, आक्रमण के प्रति आक्रमण होता है। पर जो लोग 'विषस्य विषमौषधं' या 'कण्टकात्कण्टकमुद्धरेत्' या 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' जैसे नीति-वाक्यों में विश्वास करते हैं, वे इस बात में कैसे विश्वास करेंगे कि आवेग के प्रति आवेग न किया जाये; आक्रमण न किया जाये।
दूध का उफान जल का छींटा देने से शान्त होता है । लोग इस प्रक्रिया को जानते हैं पर यह प्रक्रिया सर्वत्र सफल होती है, ऐसा वे नहीं मानते। विश्व में युद्ध के अहिंसक प्रतिकार का कोई उदाहरण भी नहीं है इसलिए उसे सहज मान्यता मिल भी कैसे सकती है ? आज तो हमारे लिए यही प्राप्त है कि हम इस विषय पर विशुद्ध चर्चा करें, मन्थन करें, सम्भव है कोई निष्कर्ष निकल आयेगा, नवनीत निकल आयेगा । कोई भी आक्रान्ता अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए दूसरे पर आक्रमण करता है और वह तभी करता है, जब सामने वाला अशक्त और कायर जान पड़ता है । आक्रमण को रोकने के लिए दो ही उपाय हैं
(१) शक्ति, (२) पराक्रम
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