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समाजवाद और अहिंसा
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समाजवाद की आवाज को अनेक बार दोहराया गया है । किसी विशेष संदर्भ के संयोग से वह आवाज तीव्र भी हो जाती है । किन्तु बहुत बार यह भी अनुभव होने लगता है कि यह आवाज महज औपचारिक ही तो नहीं है ? आज तक इसे नारेबाजी का रूप देकर क्या परिस्थितियों से लाभ उठाने की चेष्टा नहीं की गयी है ?
जब-जब देश में किसी आन्दोलन ने जन्म लिया है, समाजवाद की आवाज को तीव्र किया गया । अभी पृथक् तेलंगाना के आन्दोलन ने जोर पकड़ा तो सरकार की आंख खुली। प्रश्न यह है, क्या यही उसका अंतिम हल है ? यदि नहीं तो प्रश्न को जड़ से क्यों नहीं पकड़ा जाता है ?
आज देश के अधिकांश आन्दोलनों के मूल में विषमता ही काम कर और कहीं अधिकारों की
रही है । कहीं आर्थिक विषमता का स्वर तीव्र है विषमता का । यही विषमता का स्वर जब विनाश का रूप धारण कर आता है, तब सबको चिन्ता होती है और उसे समाधान देते के लिए दौड़-धूप होती है । यदि उस समाधान के लिए समय पर प्रयत्न हो जाता तो आन्ध्र के विकास का एक चौथाई विनाश क्यों होता ?
अणुव्रत-दर्शन समाजवाद का पूरा समर्थन करता है । उसका सैद्धान्तिक पक्ष समाजवादी व्यवस्था को पूरा बल देता है । उसकी आस्था है समाज में किसी प्रकार की विषमता और शोषण न रहे । मानवीय वैषम्य हिंसा को खुला आमंत्रण है । विषमता घृणा की जननी है और घृणा हिंसा की । समाजवाद विषमता में आस्था नहीं रखता । उस विषमता को मिटाने के लिए गांधीजी ने जिस अहिंसा प्रधान माध्यम की परिकल्पना की, अणुव्रत उससे सर्वथा सहमत है । वह यह मानकर चलता है कि समाजवाद ही विषमता मिटाने का सहज सरल तरीका है और उस समाजवाद की सफलता और प्रभावशीलता के लिए अहिंसा को बुनियाद में रखना आवश्यक है ।
अणुव्रत के योगदान का जहां तक प्रश्न है, वह एक प्रयोग दे सकता है, किन्तु शासनगत व्यवस्था देना उसका लक्ष्य नहीं । प्रयोग में से जो भी fronर्ष आए, उससे शासन लाभान्वित हो सकता है । उस प्रयोग की दृष्टि से सबसे पहले विषमता के विरुद्ध विचार क्रान्ति का वातावरण तैयार करना होगा । अणुव्रत अपने जन्म से ही इस विचार क्रांति की दिशा में प्रयत्नशील रहा है । उसने देश के समग्र वातावरण में यह निष्ठा उत्पन्न करने का प्रयास
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