Book Title: Ahimsa Vyakti aur Samaj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 145
________________ १३४ अहिंसा : व्यक्ति और समाज अहिंसा ही है । अब हम इसके व्यवहार-पक्ष को लें। युद्ध अपने आप में देश, काल और परिस्थितियों की विवशता है । परस्पर टकराने वाली परिस्थितियां ही युद्ध को जन्म देती हैं किन्तु क्या युद्ध उन परिस्थितियों का समाधान भी है ? समाधान आपसी सौहार्द और मित्र-भाव में से ही आ सकता है। इससे स्पष्ट है युद्ध परिस्थितियों को दबा सकता है, शान्त नहीं कर सकता। दबी हुई चीज जब भी अवसर पाकर उफनती है, दुगुने वेग से उभरती है। दूसरा महायुद्ध और तीसरे महायुद्ध की चिनगारियां इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। इस हालत में एकमात्र अहिंसा में ही इसका आश्वासन दीखता है। अहिंसा में परिस्थितियों के समापन की क्षमता है किन्तु यह युद्ध के पूर्व या पश्चात् के समय में कार्यकर होती है । युद्ध के समय में अहिंसा क्या करे, इस प्रश्न का उत्तर तो कठिन नहीं; व्यवहार अवश्य कठिनता लिये है। क्योंकि उस व्यवहार के लिए समुचित भूमिका, प्रभावशाली नेतृत्व, अहिंसा के प्रति अनन्य निष्ठा और उसके लिए मर-मिटने वाले बलिदानियों की अपेक्षा है । जब तक इनका अभाव होता है, तब तक अहिंसा में तेज नहीं आ सकता। निस्तेज अहिंसा हिंसा से भी गयी-गुजरी होती है। युद्ध एक भयंकर ज्वर है । ज्वर के उपशमन के लिए उसका भीतरी ताप निकलना जरूरी होता है । इस दृष्टि से कभी-कभी युद्ध को आवश्यक भी समझा जाता है । उत्ताप का उपशमन हो, इसमें कोई दो मत नहीं । किन्तु उस शमन का मार्ग युद्ध ही हो, यह अवश्य विचारणीय है। शरीर-शास्त्रियों का अभिमत है कि तेज ज्वर को एकदम तोड़ देना अथवा कृत्रिम साधनों से उसे कम करने का प्रयत्न करना अनेक दूसरी प्रतिक्रियाओं को जन्म देना है। यह दूसरे अनेक रोगों का कारण है। इनकी अपेक्षा उस उत्ताप को सहज रूप से और अपनी सहज गति से बाहर निकलने देना, अनेक रोगों से मुक्ति पाने का रास्ता है। उपवास, ठण्ड और गर्मी का संतुलन आदि साधनों से भयंकर ज्वर भी स्वास्थ्य के लिए वरदान बन जाते हैं।। यही विचार अहिंसा के साथ मैं देखता हूं। वैसे तो युद्ध की नियमसंहिता भी क्या अहिंसापरक नहीं है ? अस्पताल, धर्म-स्थान, स्कूल-कॉलेजों आदि पर आक्रमण नहीं करना, आबादी वाले स्थानों पर बमबारी नहीं करना, असनिक ठिकानों पर आक्रमण नहीं करना आदि अनेक नियम मानवीय दृष्टिकोण पर ही आधारित हैं। इसी विचार को और अधिक विकसित किया जा सकता है। भरत और बाहुबली के बीच युद्ध का होना अनिवार्य हो गया, तब यह सोचा गया कि सारी निरीह जनता को इन युद्ध की लपटों में क्यों झोंका जाए? संघर्ष जब दो व्यक्तियों के बीच है, तब शेष प्रजा को यह उत्पीड़न क्यों दिया जाए ? द्वन्द्व-युद्ध हो, जिससे शक्ति-परीक्षा हो जाए और लाखों की संख्या में होने वाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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