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शांति और अहिंसा-उपक्रम
प्राणियों के प्रति निर्दय व्यवहार नहीं होते और मानव समाज में विलासिता नहीं पनपती। क्रूर हिंसा-जनित प्रसाधन सामग्री और परिधानों का उपयोग वे ही लोग कर सकते हैं जो सब प्राणियों के साथ तादात्म्य का अनुभव नहीं करते । कुछ लोग मनोरंजन के लिए पशुओं को आपस में लड़ाते हैं। थोड़े से लोगों का क्षणिक मनोविनोद प्राणी जगत् के प्रति क्रूरता का खुला निदर्शन है । अहिंसा का प्रशिक्षण मनुष्य को इस प्रकार की क्रूरता से विरत कर सकता
समस्त प्राणी-जगत् के प्रति उदार या मानवीय दृष्टिकोण रखने वाला व्यक्ति प्रकृति की भी अधिक छेड़छाड़ नहीं कर सकता। पर्यावरण विज्ञान प्रकृति के किसी भी हिस्से में हस्तक्षेप को उचित नहीं मानता। उसकी यह अवधारणा बहुत प्राचीन नहीं है । भगवान महावीर ने ढाई हजार वर्ष पहले अहिंसा और संयम के जो सूत्र दिए, उनके अनुसार प्रकृति के एक कण को भी क्षतिग्रस्त नहीं किया जा सकता। पदार्थ जगत् के साथ संबंधों की सीमाएं
___मनुष्य की एक मौलिक मनोवृत्ति है-अधिकार की भावना । इसी भावना से प्रेरित होकर वह परिग्रह का संग्रह करता है । परिग्रह की चेतना मनुष्य के अस्तित्व को समाप्ति की ओर अग्रसर करने वाली है । "एरिक फ्रोम" ने एक पुस्तक लिखी है-'टू हेव ओर टू बी'। (To have or to be)--- अधिकार अथवा अस्तित्व । मनुष्य को इन दोनों में से एक का चुनाव करना है । उसे अपने अस्तित्व को बचाकर रखना है तो अधिकार की भावना का त्याग करना होगा।
___मनुष्य के सामने यह एक दोहरी समस्या है । एक ओर पदार्थ के बिना उसका काम नहीं चल सकता। दूसरी ओर ममत्व या अधिकार की भावना उसके अस्तित्व के लिए खतरा बन रही है । ऐसी स्थिति में प्रशिक्षण का एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु है—पदार्थ के प्रति अमूर्छा या अनासक्ति का विकास । पदार्थ के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव आते ही उसके संग्रह और उपभोग की सीमाएं अपने आप स्वीकृत हो जाती हैं। अन्तिम शरण आदिम शरण बने
अहिंसा के प्रशिक्षकों और प्रशिक्षुओं को भगवान् महावीर का उद्घोष "अहिंसा सव्वभूयखेमंकरी" याद रखना है। उन्होंने कहा--अहिंसा सब प्राणियों के लिए कल्याणकारिणी है । यह उद्घोष उस समय अधिक सार्थक
और प्रासंगिक लगता है, जब युद्ध की विनाशलीला से थके-हारे और डरेसहमे लोग अहिंसा की शरण स्वीकार करते हैं, युद्ध विराम की घोषणा करते हैं। यदि हिंसा या युद्ध में शरण बनने की क्षमता होती तो युद्ध विराम की
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