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हिसा मनुष्य का स्वभाव नहीं
का चयन स्वाभाविक दशाओं में अधिकतम नहीं हुआ । जब प्रयोगस्वरूप उत्पन्न किये गये इस प्रकार के उग्रतम आक्रामक पशु किसी सामाजिक समूह में विद्यमान हैं तो वे या तो सामाजिक संरचना को छिन्न-भिन्न कर देते हैं या उससे बाहर निकाल फेंक दिये जाते हैं । इस प्रकार हिंसा न तो हमारी विकासवादी बपौती में है और न हमारे जीन्स में ।
वैज्ञानिक दृष्टि से यह कहना भी गलत है कि मानव-मस्तिष्क हिंसक होता है । यद्यपि तान्त्रिक उपकरण हिंसक क्रियाएं कर सकता है, फिर भी यह आन्तरिक या बाह्य उत्प्रेरकों से स्वत: ही क्रियाशील नहीं हो जाता। उच्चवर्गीय स्तनधारियों के समान, परन्तु अन्य पशुओं से भिन्न, हमारे नाड़ी-संस्थान की उच्च प्रक्रियाएं इस प्रकार के उत्प्रेरकों का स्राव उनकी क्रियान्विति से पहले ही कर देती है। हमारी क्रियाओं का स्वरूप हमारी परिस्थितियों एवं समाजीकरण द्वारा निर्धारित होता है। हमारे नाड़ीय शरीर-संस्थान में ऐसी कोई बात नहीं है जो हमें हिंसात्मक क्रिया या प्रतिक्रिया करने को बाध्य करती
यह भी वैज्ञानिक दृष्टि से त्रुटिपूर्ण है कि युद्ध का कारण हमारी उस ओर मूल प्रवृत्ति का होना है या कोई एकल अभिप्रेरणा है। आधुनिक युद्धकौशल का आविर्भाव भावनात्मक एवं अभिप्रेरक कारकों के आधिपत्य से संज्ञानात्मक कारकों के आधिपत्य तक एक यात्रा है। आधुनिक युद्ध में वैयक्तिक गुणों-जैसे आज्ञापालन, सुझाव, आदर्शवादिता, सामाजिक-कौशल-जैसे भाषा; तर्कसंगत विचार जैसे लागत अनुमान, नियोजन एवं सूचना-संसाधन आदि के संस्थागत प्रयोग का समावेश है। आधुनिक युद्ध की तकनीक में वास्तविक योद्धाओं के प्रशिक्षण या युद्ध में सहयोग देने हेतु आम व्यक्ति को तैयार करने की प्रक्रिया में हिंसा से सम्बद्ध लक्षणों को बहुत बढ़ा-चढ़ा दिया जाता है। इस अतिरञ्जना के परिणामस्वरूप इन लक्षणों को उस प्रक्रिया का परिणाम मानने के बजाय उसका कारण मान लिया जाता है ।
___अतएव हमारा निष्कर्ष है कि प्राणीशास्त्र मानवता को युद्ध का दोषी नहीं ठहराता तथा उसे जैविक निराशावाद के दासत्व से मुक्त करवाकर उसमें इतना आत्म-विश्वास भरा जा सकता है कि वह इस अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति वर्ष और आगामी वर्षों में रूपान्तरकारी कार्यों का निष्पादन कर सके । यद्यपि ये कार्य संस्थागत एवं सामूहिक हैं, ये संभागियों की अन्तश्चेतना पर आधारित हैं, जिनके लिए निराशावाद और आशावाद निर्णायक तत्त्व हैं। जैसे कि युद्ध मानव मस्तिष्क में प्रारम्भ होते हैं, शान्ति भी मस्तिष्क से ही प्रारम्भ होती है। जिस जाति ने युद्ध का आविष्कार किया, वही शान्ति का आविष्कार करने में सक्षम है । इसकी जिम्मेदारी हममें से प्रत्येक व्यक्ति पर है।
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