________________
८८
अहिंसा : व्यक्ति और समाज
के प्रयोग में अपनी पूरी शक्ति लगा दे । अहिंसा का प्रयोग सबसे पहले शक्ति की मांग करता है । शक्ति के अभाव में अहिंसा की ओट लेना बहुत बड़ी कायरता है।
अहिंसात्मक प्रतिकार के लिए व्यक्ति में सबसे पहले असाधारण साहस होना नितांत अपेक्षित है। साधारण साहस हिंसा की आग देखकर कांप उठता है। जहां मन में कंपन होता है वहां स्थिति का समाधान हिंसा में दिखायी पड़ता है। दर्शन का यह मिथ्यात्व व्यक्ति को हिंसा की प्रेरणा देता है। हिंसा और प्रतिहिंसा की यह परम्परा बराबर चलती रहती है । इस परम्परा का अंत करने के लिए व्यक्ति को सहिष्णु बनना जरूरी है। सहिष्णुता के अभाव में मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है । मन संतुलित न हो तो अहिंसात्मक प्रतिकार की बात समझ में नहीं आती, इसलिए वैचारिक सहिष्णुता की बहुत अपेक्षा रहती है।
कुछ व्यक्ति विरोधी विचारों को सह सकते हैं, किन्तु उनमें कष्टसहिष्णुता नहीं होती । थोड़ी-सी शारीरिक यातना से घबराकर वे अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं। यातना की संभावना मात्र से वे विचलित हो जाते हैं अतः हिंसात्मक परिस्थिति के सामने घुटने टेक देते हैं । जो व्यक्ति कष्ट-सहिष्णु होते हैं, वे विषम स्थिति में भी अन्याय और असत्य के सामने झुकने की बात नहीं करते। ऐसे व्यक्ति अहिंसात्मक प्रतिकार में अधिक सफल होते हैं। उनकी कष्ट-सहिष्णुता इतनी बढ़ जाती है कि वे मृत्यु तक का वरण करने के लिए सदा उद्यत रहते हैं । जिन व्यक्तियों को मृत्यु का भय नहीं होता है, वे सत्य की सुरक्षा के लिए सब कुछ कर सकते हैं। प्रतिरोधात्मक अहिंसा का प्रयोग इन्हीं व्यक्तियों द्वारा किया जाता है।
मेरे जीवन में अनेक प्रसंग आए हैं, जहां कुछ लोगों ने मेरे प्रति हिंसा का वातावरण तैयार किया । वे लोग चाहते थे कि मैं अपनी अहिंसात्मक नीति को छोड़कर हिंसा के मैदान में उतर जाऊं पर मेरे अंतःकरण ने कभी भी उनका साथ नहीं दिया और मैंने हर हिंसात्मक प्रहार का प्रतिरोध अहिंसा से किया ।
अभी-अभी हम रतनगढ़ से चले । जिस स्थान पर रहने का निर्णय था, वहां कुछ उपद्रवी तत्त्व पहुंच गये। उस स्थान में रहने की अनुमति हमें पहले से ही प्राप्त थी, फिर भी हम नहीं गये, क्योंकि वहां उपद्रवी तत्त्व हिंसा पर उतारू हो गये थे । हम लोग सड़क के किनारे वृक्षों की छाया में बैठ गये और अपने काम में लग गए। उपद्रवकारियों को उपद्रव करने का अवसर ही नहीं मिला । इससे वे हतप्रभ रह गये। उन्हें अपने अपमान का अनुभव हुआ और वे प्रतिशोध की भावना से वहां पहुंच गये, जहां हम ठहरे थे। वहां पहुंचकर उन्होंने नारेबाजी और छिटपुट पथराव किया। हम अपना काम करते रहे। उन लोगों को बड़ी निराशा हुई और हमें एक स्थिति का समाधान मिल गया।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org