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हिंसा और अहिंसा का द्वन्द्व
तोड़-फोड़मूलक विध्वंसक प्रवृत्तियों से समाज को बचाने के लिए हिंसक व्यक्तियों की मांग स्वीकार कर लेनी चाहिए अथवा उनके साथ संघर्ष करते रहना चाहिए?
व्यक्ति तोड़-फोड़मूलक प्रवृत्तियों का सहारा लेता है अपनी दुर्बलता छिपाने के लिए, पर उससे उसकी दुर्बलता को अभिव्यक्ति मिलती है। कोई भी सक्षम व्यक्तित्व अपनी मांग पूरी कराने के लिए हिंसा को प्रश्रय नहीं दे सकता। अहिंसक व्यक्ति के लिए स्थिति में औचित्य, अनौचित्य का निर्धारण करना बहुत जरूरी है । यदि मांग में औचित्य है तो उसे स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं रहनी चाहिए अन्यथा हिंसा के सामने झुकना सिद्धांत की हत्या करना है। दूरगामी कठिनाइयों की बात सोचकर हिंसा के सामने घुटने टेकना कायरता है। कायरता उतना ही वड़ा पाप है जितना बड़ा हिंसा । कायर व्यक्ति सहन नहीं कर सकता और सहिष्णु कभी कायर नहीं हो सकता । कायरता और सहिष्णता, ये दो भिन्न दिशाएं हैं। एक व्यक्ति इन दोनों दिशाओं से एक साथ नहीं गुजर सकता। हिंसात्मक स्थितियों से डटकर मुकाबला करने के लिए सहिष्णता का विकास होना बहुत अपेक्षित है। कायरता का मनोभाव हिंसा के साथ समझौता करता है, अथवा व्यक्ति की वृत्तियों को हिंसा की ओर बढ़ने के लिए उत्तेजित करता है । इसलिए संघर्ष की स्थिति में कायरता का परिचय व्यक्ति की पहली पराजय है।
कभी-कभी औचित्य के आधार पर भी तोड़-फोड़मूलक प्रवृत्तियां होती हैं । मेरी दृष्टि में यह स्वस्थ पद्धति नहीं है । इसे हम विवशता या बाध्यता मानकर छोड़ सकते हैं, किन्तु करणीय नहीं मान सकते । हिंसा और अहिंसा का यह द्वन्द्व शांत हो सकता है, किन्तु यह शांति हिंसा के सामने झुकने से नहीं, उसके साथ सघर्ष करने से प्राप्त होती हैं। संघर्ष के बाद जो शांति मिलती है वह अहिंसा की उपादेयता को सिद्ध करती है । हिंसा के साथ समझोता करने से एक ऐसा अनुभव होता है कि वातावरण शांत हो रहा है किन्तु कुछ समय बाद वह और अधिक उग्र हो जाता है । अत: मैं यह मानकर चलता हूं कि संघर्ष हो या समझोता, उसमें औचित्य का लंघन नहीं होना चाहिए और सैद्धांतिक आधार से निर्मित स्थिति ही संघर्ष-मुक्ति का समाधान है।
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