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हिंसा और अहिंसा का द्वन्द्व
हिंसा विश्व का सामान्य विकल्प है। केवल मनुष्य ही नहीं, समूचा प्राणी जगत् इस विकल्प को आधार मानकर चलता है। प्राणिमात्र में यह दुर्बलता है कि जहां भी थोड़ी-सी कठिनाई का अनुभव करता है, हिंसा की ओर दृष्टि टिका देता है । कठिनाई के समय में हिंसा की ओर प्रवृत्त व्यक्ति को सहारे का आभास होने लगता है। परिस्थिति में सुधार लाने या उसे बदलने का एक विकल्प हिंसा है, यह माना जाता है, किन्तु यह स्थायी समाधान देने वाला नहीं है। इसीलिए संतुलित मनःस्थिति और शांति की स्थिति में इस विकल्प को स्वीकृति नहीं मिल सकती । आवेगशील प्राणियों को इसके अतिरिक्त दूसरा श्रेष्ठ उपाय नहीं सूझता। किसी भी स्थिति में जहां हिंसा को प्रश्रय मिलता है, वहां अन्य विकल्पों का आधार छूट जाता है। इस स्थिति का प्रभाव विकसित प्राणियों पर अधिक होता है।
विकासशील या शिष्ट मनुष्यों के लिए हिंसा न विकल्प है और न उपाय । मनुष्य ने जैसे-जैसे विकास किया वैसे-वैसे उसे हिंसा की हेयता प्रतीत होती गई। जिन व्यक्तियों को अहिंसा की श्रेष्ठता का अनुभव हो जाता है, अहिंसा की उपादेयता का बोध हो जाता है, वे कभी हिंसा का सहारा ले नहीं सकते।
हिंसा को प्रतिहिंसा से बल मिलता है। अहिंसा के सामने हिंसा का प्रभाव क्षीण हो जाता है और हिंसक व्यक्ति इतना दीन हो जाता है कि वह कुछ समझ ही नहीं पाता । हिंसा, हिंसा के सहारे चलती है । एक व्यक्ति हिंसा का प्रयोग करता है और दूसरा व्यक्ति उसका उत्तर हिंसा से देता है, तब हिंसा चलती है । आगमों का एक सूक्त--'अत्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं ।' शस्त्र-हिंसा में होड़ चलती है, अशस्त्र - अहिंसा में होड़ नहीं होती। हिंसा को अहिंसा का उत्तर मिले तो हिंसा स्वयं परास्त हो जाती
हिंसक व्यक्ति अहिंसक को गालियां देता है, पीटता है, मारता है, उस समय अहिंसक ऐसा कुछ भी न कर सके तो हिंसक व्यक्ति बड़ा व्याकुल होता है और उसे अपने कार्य की विफलता का अनुभव होने लगता है। हिंसक व्यक्ति चाहता है कि सामने वाला व्यक्ति भी हिंसा पर उतारू हो जाए। ऐसा नहीं होता है, तब उसका मनोबल टूट जाता है और वह अपना संतुलन खो देता है । अहिंसा का यह व्यापक प्रभाव होता है तभी, जब अहिंसक व्यक्ति अहिंसा
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