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अहिंसक जीवन-शैली
जीवन की दो शैलियां हैं-अहिंसा-प्रधान और हिंसा-प्रधान । अहिंसाप्रधान जीवन-शैली का प्रयोग अध्यात्म के क्षेत्र में सदा से मान्य रहा है। पर सामाजिक और राष्ट्रीय सन्दर्भो में अहिंसा का प्रयोग करने वाले बहत कम व्यक्ति हुए हैं। इस युग में महात्मा गांधी ने जीवन की हर समस्या का समाधान अहिंसा के धरातल हर खड़े होकर खोजने का प्रयास किया। उस समय के अनेक राजनीतिविदों ने उसके महत्त्व को समझा और उसे स्वीकार किया। गांधीजी ने समाज और राज्य के संचालन में अहिंसा की जो धारा बहायी, वह उनके असमय में चले जाने से क्षीण हो गई। इससे उन लोगों को बात करने का अवसर मिल गया जो शस्त्र में विश्वास करते थे और अहिंसा की मखौल उड़ाते थे। कुछ साम्यवादी देश भी उनके साथ थे क्योंकि वे अहिंसा को मानते ही नहीं थे।
अहिंसा एक शाश्वत सत्य है। समय की आंधी इसे धूमिल कर सकती है, पर समाप्त नहीं कर सकती। इस युग में हिंसाधर्मी लोगों की करतूतों से अहिंसा की तेजस्विता मंद होती जा रही थी। ऐसे समय में सहसा एक धमाका-सा कर दिया सोवियत नेता गोर्बाच्योव और भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी की वार्ता के बाद जारी किए गए घोषणापत्र ने । उस घोषणापत्र से यदि गोर्बाच्योव और राजीव गांधी को अलग कर दिया जाए तो ऐसा लगेगा कि वह घोषणापत्र राजनीति का नहीं, अध्यात्म का है।
शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का आधार बनाने की बात किसी भी राष्ट्रनेता के दिमाग की उपज हो, बहुत विलक्षण बात है। इस एक नीति पर ही सही रूप में अमल हो सके तो 'स्टारवार' की विभीषिका अपने आप समाप्त हो जाएगी।
मानव-जीवन को अमूल्य मानना, अहिंसा को सामाजिक जीवन का आधार मानना तथा भय और सन्देह के स्थान पर सद्भाव और विश्वास का वातावरण निर्मित करना अध्यात्म की धरती पर ही सम्भव हो सकता है।
परमाणु हथियार-मुक्त अहिंसक विश्व बनाने के लिए ठोस कार्यक्रम को क्रियान्वित करने की बात कोई साधु-संन्यासी तो कर सकता है, किन्तु राजनीति के मंच से ऐसी धोषण किसी भी परिस्थिति में अभिनन्दनीय हो सकती है। गोर्बाच्योव का साम्यवादी मन अहिंसा की पूजा में इस तरह जुड़ सकता है, किसी को कल्पना भी नहीं होगी। समाचार-पत्रों में जिसने भी उस
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