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अहिंसक जीवन शैली के प्रयोग
श्री हरमन कैलनबैक एक जर्मन सज्जन थे। उन्होंने भरी जवानी में जर्मन सेना में सिपाही का काम किया था और जीवन का एक भाग व्यतीत करने के लिए वे दक्षिण अफ्रीका गये थे। स्थपति (शिल्पकार) के नाते वे बड़े कुशल थे। आमदनी बहुत अच्छी थी। अकेले राम थे। न ऊधो का लेना, न माधो का देना । इसलिये एशो-आराम और ठाटबाट की बात का तो कहना ही क्या ? शादी नहीं की थी, इसलिए जिन्दगी भी गैर-जिम्मेदार थी। जीवन की नयी-नयी लहरों के अनुभव के जिज्ञासु ठहरे। इसलिए अनेक पाश्चात्य व्यक्तियों की तरह वे भी जिस विषय की ओर ध्यान देते, उसी में डूब जाते थे। श्री कैलन बैक अपने धंधे के साथ-साथ जीवन के दूसरे पहलुओं की ओर भी ध्यान देते थे। अन्तरात्मा को कुछ संतोष मिले, ऐसी चीजों की भी शोध करते थे। उनके साथ अन्याय न करता होऊं तो शायद यह भी हो सकता है कि केवल जीवन में विविधता लाने के स्थूल हेतु से ही वे इस तरह के काम करते हों । कुछ भी हो, किन्तु अपने काम-धंधे और वैभव से उन्हें जो आनन्द मिलता था, उससे उन्हें संतोष नहीं था। यह संतोष वे ढूंढा करते थे।
जोहानिसबर्ग में थियासॉफिकल सोसायटी की शाखा थी। वहां वे अपनी धार्मिक वृत्ति को पोषण देने जाया करते थे और क्षुधा की शान्ति के लिये निरामिष भोजनगृह में जाते थे। इन दो संस्थाओं में गांधीजी से उनकी भेंट हुई।
श्री कैलनबैक स्वभाव के सरल और बड़े भोले थे। साथ ही जिज्ञासु वृत्ति के थे । ट्रान्स वाल में प्रचलित रंग-भेद की वृत्ति भी उनमें काफी मात्रा में थी। हिन्दुस्तानियों को देखने में भी उन्हें घृणा आती थी। परन्तु जिसे वे जीवन की विविधता मानते थे, उसमें गांधीजी जैसे एक हिन्दुस्तानी को प्रवीण और रंगा हुआ देखकर गांधीजी की ओर उनका ध्यान गया । तो उनके मन में एक प्रश्न उठा कि क्या हिन्दुस्तानियों जैसी संस्कारहीन जाति में जीवन को विविधता युक्त और समृद्ध बनाने के प्रयोग करने वाले गांधी जैसे प्रवीण मनुष्य भी हो सकते हैं ? पर बाद में वे गांधीजी से सम्बन्ध कायम करने की कोशिश करने लगे। दोनों मिलकर चर्चा करते थे।
एक दिन उन्होंने गांधीजी को अपने यहां भोजन का निमंत्रण दिया । गांधीजी ने कृतज्ञतापूर्वक निमंत्रण को इस शर्त पर स्वीकार किया कि उनके साथ श्री काछलिया और एक दो अन्य साथियों को भी निमंत्रण दिया जाए;
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