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नश्वरता पर प्रकाश डालते हैं । इनको पढ़कर धन के पीछे लग रही अंधी दौड़ पर मनुष्य विचार करे कि क्या यह दौड़-धूप सार्थक है ? डषुकारीय नगरी का पूरा पुरोहित परिवार दीक्षा लेता है और उसका अपार धन राज खजाने में श्राता है तो उस नगरी के राजा से रानी सहज ही प्रश्न पूछती है कि 'यह घन कहाँ से आ रहा है ! जब उसको पता लगता है कि 'धुरोहित परिवार के दीक्षा लेने पर धन स्वामित्व विहीन होने से राज खजाने में आ रहा है' तो तुरन्त रानी राजा से कहती है, "कोई वमन किये भोजन को ग्रहण करना पसन्द नहीं करता और श्राप ब्राह्मण द्वारा त्यागे धन को ग्रहण कर रहे हैं तो यह अच्छा नहीं । घन की पिपासा अनन्त है और समस्त जगत का धन भी दे दें तो यह शान्त न होगी । यह घन मृत्युपरान्त काम नहीं आयेगा | श्राप काम भोगों का त्याग कर धर्म का मार्ग लो वह साथ चलेगा ।" इस उपदेश से राजा भी प्रभावित हुआ श्रीर पुरोहित परिवार के साथ राजा भोर रानी भी संसार भोगों को त्याग कर संयम मार्ग पर चल पड़े। इस प्रकार के प्राख्यान, संवाद और सरल उदाहरण से प्रेरित करने वाले सूत्र उत्तराध्ययन में प्रचुर मात्रा में हैं और इनका सतत अध्ययन एवं स्वाध्याय, जीवन को सही मार्ग पर चलाने में व श्रात्म-कल्याण में मदद करता है ।
चांडालकुल उत्पन्न हरिकेश मुनि और ब्राह्मणों में हुए संवाद से यह पुष्टि होती है कि जैन धमं वर्ण व्यवस्था में विश्वास नहीं करता श्रीर प्रत्येक व्यक्ति को धर्म-यज्ञ का अधिकार है और किसी वर्ग विशेष की थाती नहीं है । ब्राह्मण कौन है और यज्ञ किसे कहते हैं ? इसका प्रतिपादन इस अध्याय में बहुत ही सुन्दर रूप से हुआ है । ब्राह्मण जन्म से नहीं कर्म से होता है । यज्ञ और स्थान बाहरी न होकर आन्तरिक होने चाहिये । तप वास्तविक अग्नि है, जीव अग्नि स्थान है, योग कलछी है, शरीर अग्नि का प्रदीप्त करने वाला
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उत्तराध्ययन