Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चले गये, उनके गण सुधर्मा के गण में सम्मिलित होते गये। आज जो आगम-साहित्य उपलब्ध है उसके रचयिता सुधर्मा हैं पर अर्थ के प्ररूपक भगवान् महावीर ही हैं। किन्तु स्मरण रखना होगा कि उसकी प्रामाणिकता, अर्थ के प्ररूप सर्वज्ञ होने से ही है।
अनुयोगद्वार में आगम के सुत्तागम, अत्थागम और तद्भयागम, ये तीन भेद प्राप्त होते हैं। साथ ही अन्य दृष्टि से आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम, ये तीन रूप भी मिलते हैं। तीर्थंकर अर्थ रूप आगम का उपदेश प्रदान करते हैं। इसलिए अर्थ रूप आगम तीर्थंकरों का आत्मागम है। उन्होंने अर्थागम किसी अन्य से प्राप्त नहीं किया। वह अर्थागम उनका स्वयं का है। उसी अर्थागम को गणधर, तीर्थंकरों से प्राप्त करते हैं । तीर्थंकर और गणधरों के बीच किसी अन्य तीसरे व्यक्ति का व्यवधान नहीं है। इसलिए वह अर्थागम: अनन्तरागम है। उस अर्थागम के आधार से ही गणधर स्वयं सूत्र रूप में रचना करते हैं, अतः सूत्रागम गणधरों के लिए आत्मागम है । गणधरों के जो साक्षात् शिष्य हैं, सूत्रागम गणधरों से सीधा ही प्राप्त करते हैं। उनके बीच में भी किसी तीसरे का व्यवधान नहीं है, अतः उन शिष्यों के लिए सूत्रागम अनन्तरागम हैं। पर अर्थागम परम्परागम से प्राप्त हुआ है, क्योंकि वह अर्थागम अपने धर्मगुरु गणधरों से उन्होंने प्राप्त किया। अर्थागम गणधरों का आत्मागम नहीं क्योंकि उन्होंने तीर्थंकरों से प्राप्त किया। गणधरों के प्रशिष्य और उसकी परम्परा में होने वाले अन्य शिष्य-प्रशिष्यों के लिए सूत्र और अर्थ-दोनों आगम परम्परागम हैं।
__ श्रमण भगवान् महावीर के पावन प्रवचनों का गणधरों ने सूत्र रूप में जो संकलन और आकलन किया, वह संकलन 'अंगसाहित्य' के नाम से विश्रुत है। जिनभद्र गणी क्षमा-श्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है कि तप, नियम और ज्ञानरूपी वृक्ष पर आरूढ अनन्तज्ञानसम्पन्न केवलज्ञानी भव्यजनों को उद्बोधन देने हेतु ज्ञानपुष्पों की वृष्टि करते हैं, उसे गणधर बुद्धि रूपी पट में ग्रहण कर उसका प्रवचन के निमित्त ग्रथन करते हैं। गणधरों में विशिष्ट प्रतिभा होती है। उनकी बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण होती है। वे बीजबुद्धि आदि ऋद्धियों से संपन्न होते हैं। वे तीर्थंकरों की पुष्पवृष्टि को पूर्ण रूप से ग्रहण कर रंगबिरंगी पुष्पमाला की तरह प्रवचन के निमित्त सूत्रमाला ग्रथित करते हैं । बिखरे हुए पुष्पों को ग्रहण करना बहुत कठिन है, किन्तु गूंथी हुई पुष्पमाला को ग्रहण करना सुकर है। वही बात जिनप्रवचन रूपी पुष्पों के सम्बन्ध में भी है। पद, वाक्य, प्रकरण, अध्ययन, प्राभृत आदि निश्चित क्रमपूर्वक सूत्ररूप में व्यवस्थित हो तो वह सहज रूप से ग्रहीतव्य होता है। इस तरह समीचीन रूप से सरलता-पूर्वक उसका ग्रहण, गुणन, परावर्तन, धारण, स्मरण, दान, पृच्छा आदि हो सकते हैं। गणधरों ने अविच्छिन्न रचना की है। गणधर होने के कारण इस प्रकार श्रुतरचना करना उनका कार्य है। भाष्यकार ने विविध प्रकार के प्रश्न समुत्पन्न कर उनके समाधान प्रस्तुत किये हैं। तीर्थंकर जिस प्रकार सर्वसाधारण लोगों के लिए विस्तार से विवेचन करते हैं, वैसा गणधरों के लिए नहीं करते। वे गणधरों के लिए बहुत ही संक्षेप में अर्थ भाषित करते हैं। गणधर निपुणता के साथ उस अर्थ का सूत्ररूप में विस्तार करते हैं। वे शासनहित के लिए सूत्र का प्रवर्तन करते हैं।
सहज में यह जिज्ञासा उबुद्ध हो सकती है कि तीर्थंकर अर्थ का प्ररूपण करते हैं, बिना शब्द के अर्थ किस प्रकार कहा जा सकता है ? यदि तीर्थंकर संक्षेप में सूचना ही करते हैं तो जो सूचना दी जाती है वह तो सूत्र ही है ! पर उसे अर्थ कहना कहाँ तक उचित है ? समाधान करते हुए जिनभद्र ने कहा-अर्हत् पुरुषापेक्षया अर्थात् गणधरों की अपेक्षा से बहुत ही स्वल्प रूप में कहते हैं । वे पूर्णरूप से द्वादशांगी नहीं कहते। द्वादशांगी की अपेक्षा से वह अर्थ है और गणधरों की अपेक्षा से सूत्र है।
१. २. व ४. अनुयोगद्वार-४७० पृ. १७९
। ३. विशेषा. भाष्य. १०९४-९५
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