Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 19
________________ आचारांगसूत्रे आगामुकसत्वसंवलितसक्तुकादिभ्यः प्राणिनः विशोध्य विशोध्य-अपाकृत्य अपाकृत्य, अत्रापि अपनयनक्रियाऽभ्यावृत्या अशुद्धांशस्य सर्वथा वर्जनं सूचितं भवति, ततः-तदनन्तरम् अशुद्धांशपरित्यागविशोधनानन्तर मित्यर्थः अवशिष्टं शुद्धम् तदशनादिजातं परिज्ञाय संयतः सम्यग् यतएव रागद्वेषविमुक्तः सन् भुञ्जीत पिबेवा, नत्र भक्षणीयमाहारं भुञ्जीत, पेय. श्याहारं पिबेदित्यर्थः । किन्तु यच्च अवशिष्टं शुद्धमशनादिकं भोक्तुं वा पातुं वा न शक्नुयात् भोक्तुं पातुं वा न पारयेत् स भावभिक्षुस्तदा तदाहारजातम् आदाय गृहीत्वा एकान्तं निर्जनप्रदेशम् अपक्रामेत्-निर्गच्छेत् अथ-अनन्तरम् तत्र च एकान्तप्रदेशे अपक्रमानन्तरमित्यर्थः, दग्धस्थण्डिले-दग्धबीजाङ्करादिस्थले चा, किट्टराशौवा,-अस्थिपञ्जरसमुदाये या इत्यर्थः, वाअथवा किट्टराशौ वा-लोहादिमलव्याप्तजीर्णशीर्णलोहखण्डसमहे इति तदर्थः, वा-अथवा तुषराशौ वा-वुससमुदाये वा, गोमयराशौ वा-शुष्ककरीप समुदाये वा, सर्वमुपसंहरबाहको दूर करके 'उम्मीसं विसोहिय विसोहिय' उन्मिश्र विशोध्य विशोध्य, प्राणी वगैरह से मिले हुए अशनादि चतुर्विध आहार जात को विशोधन करके अशुद्ध अंशो को अच्छी तरह संशोधन विवेचन द्वारा दूर कर के 'तओ 'संजयामेव भुंजिन वा, पीइज्ज वा' ततः तदनन्तर-अशुद्ध अशों को हटा ने के बाद अवशिष्ट बचे हुए अशनादि चतुर्विध आहार जात को शुद्ध समझकर संयत एवरागद्वेष से रहित होकर ही भुञ्जीत वा भोजन करे या पिबेत्-पानकरे, खाने योग्य शुद्ध चावल दाल वगैरह को खाय, और पीने योग्य शुद्ध दुग्ध वगैरह को पीबे किन्तु 'जं च णो संचाइज्जा भोत्तए वा पायए वा' यत्-जिस अंश को, 'नो शक्नुयात् भोक्तुंवा पातुं वा-खाना या पीना योग्य नहीं समझे 'से तमायाय एगंत मवक्कमिज्जा' स-वह साधु या साध्वी तदादाय-उसे लेकर, जो कि स्थाने पीने योग्य नहीं है उसे लेकर एकान्त-निर्जन प्रदेश में अपकामेत-चला जाय और 'एगंतमवक्कमित्ता' एकान्त में जाकर 'अहेज्झामथंडिलसि वा' अथ दग्ध स्थण्डिले वा-दग्धवीज अङ्कुर आदि स्थल में या 'किट्टरासिसि वा' किटराशौ वा ચતુર્વિધ આહાર જાતને વિશેધન કરીને અશુદ્ધ અંશેને સંશોધન કરીને વિવેચન કરી તે 4॥ २ ॥२ 'तओ संजयामेष भुजिज्ज वा पीइज्ज वा' अशुद्ध शान या माह બાકીના બચેલા અનાદિ ચતુર્વિધ આહાર જાતને શુદ્ધ સમજીને રાગદ્વેષ રહિત થઈને આહાર કરે અથવા પાન કરે, આહાર પેશ્ય શુદ્ધ અન્નાદિને આહાર કરે અને પિવાલાયક शुद्ध र विगेरे ने पी२ ५२ तु 'जं च णो संचाइज्जा भोत्तए वा पायए वा' रे म मा , पीuarय न डाय ‘से तमायाय एर्गतमपकमिज्जा' साधु ४ सय तन as अर्थात् २ पापी-पीपaan४ न य तn asai शमा ४ मन 'एगंतमव. कमित्ता' मेन्तम ने 'अहे ज्झामथंडिलंसि वा' प्रणेता भी २२ मा २२मा था तो 'किट्टरासि सि वा' या याना तो खाय । २५मा मया 'तुसरासि सिवा' श्री. ॥॥२॥ सूत्र:४

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